कीटों का रासायनिक नियंत्रण ( Chemical Control of Insect Pest )
रासायनिक पदार्थों द्वारा कीटों को मारना , भगाना या इनकी समष्टि को कम करना , रासायनिक नियंत्रण ( Chemical Control ) कहलाता है ।
कोई भी जीव जिसकी समष्टि वृद्धि एक निश्चित स्तर से अधिक होकर आर्थिक क्षति पहुँचाने लायक हो जाये तथा जिनका अस्तित्व मनुष्य के कल्याण , सुविधा तथा लाभ में परस्पर विरोध उत्पन्न करे उसे नाशक जीव कहते हैं ।
वे रसायन जो कीटों व अन्य जीवों को , जो मनुष्य तथा उसकी कृषि एवं प्राणियों आदि को क्षति पहुँचाते हैं , मारने या भगाने के काम आते हैं , पीड़कनाशी ( Pesticides ) कहलाते हैं ।
पीड़कनाशियों का वर्गीकरण प्राणी वर्ग के अनुसार निम्नानुसार कर सकते हैं –
1. कीटनाशी ( Insecticides ) – कीटों के विरूद्ध प्रभावी हैं ।
2. बरूथीनाशी ( Miticides ) – बरूथीयों को मारते हैं ।
3. सूत्रकृमिनाशी ( Nematicides ) – सूत्रकृमियों का नाश करते हैं ।
4. कृन्तकनाशी ( Rodenticides ) – चूहों आदि को मारते हैं ।
5. मोलस्कनाशी ( Molluscicides ) – घोंघा व कम्बू को मारते हैं ।
6. कवकनाशी ( Fungicides ) – कवकों की रोकथाम करते हैं ।
7. जीवाणुनाशी ( Bactericides ) – जीवाणुओं की रोकथाम करते हैं ।
8. शाकनाशी ( Herbicides ) – शाक को नष्ट करते हैं ।
9. खरपतवारनाशी ( Weedicides ) – खरपतवारों को नष्ट करते हैं ।
1. कीटनाशी ( Insecticides ) – कीटनाशी शब्द का अर्थ हैं- कीटों का नाश करने वाला । फसलों , सब्जियों , फल वृक्षों एवं संचित अनाज को नाशक कीटों से बचाने हेतु उनको मारने या प्रतिकर्षित करने के लिये जिन विषैले रसायनों का प्रयोग करते हैं उन रसायनों को कीटनाशी ( Insecticide ) कहते हैं । यह बहुत अधिक प्रभावी तथा त्वरित अवाघात प्रभाव ( Quick Knockdown Effect ) उत्पन्न करने वाले होते हैं तथा ये बड़ी से बड़ी नाशक कीट समष्टि को न्यूनतम स्तर तक अथवा उन्मूलन करने में सफल होते हैं , इन्हें आवश्यकतानुसार कभी भी उपयोग में लिया जा सकता है । कीटनाशियों का प्रयोग केवल समय विशेष या आपातकाल में ही करना चाहिए । फसल सुरक्षा कार्यक्रम में यह नियंत्रण विधि आसान , सफल , सस्ती एवं त्वरित परिणाम देने के कारण अधिक प्रचलन में है ।
कीट नियंत्रण में कीटनाशियों का प्रयोग बहुत पुराना है । गन्धक का बतौर कीटनाशी ईसा से 100 वर्ष पहले से उपयोग किया गया , जबकि आर्सेनिक का कीटनाशी के रूप में प्रयोग 40 ए . डी . से ही कर रहे हैं । जर्मनी में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1939 में डी.डी.टी की खोज के बाद से संश्लेषित कीटनाशियों के विकास में बड़ी क्रान्ति आई और तब से लेकर अब तक कई प्रकार के कीटनाशियों की खोज तथा उनका विकास किया जा चुका है ।
कीटनाशी संरूपण ( Insecticides Formulation ) : कीटनाशियों को सुगमता से प्रयोग में लाने हेतु कई संरूपणों में रूपान्तरित किया जाता है तथा किसी भी कीटनाशी के सफल प्रयोग के लिये उपयुक्त संरूपण जरूरी होता है ।
कीटनाशियों में दो प्रकार के संरूपण ठोस तथा द्रव रूप में उपलब्ध हैं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है –
ठोस संरूपण ( Solid formulation ) – ये तीन प्रकार के होते है –
(i) कीटनाशीय धूलि ( Insecticidal dust ) – इसमें कीटनाशी की सांद्रता 0.1 से लेकर 25 प्रतिशत तक हो सकती है । धूलि सामान्यतयाः 2 , 5 एवं 10 प्रतिशत चूर्ण के रूप बाजार में उपलब्ध होती है । इसका उपयोग प्रातः काल करना अधिक लाभकारी होता है ।
(ii) दानेदार कीटनाशी ( Insecticide Granules ) – इस संरूपण को कीटनाशी निहित असक्रिय पदार्थों से प्राप्त किया जाता है । दानों का आकार 0.25 से 2.38 मि.मी. परिधि का होता है । इन दानों में 2 से 10 प्रतिशत तक कीटनाशी की मात्रा हो सकती है । इनको भूमि अथवा पौधों पर छितराकर प्रयोग में लाते हैं । इस हेतु पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं ।
(iii) घुलनशील चूर्ण ( Wettable Powder ) – लगभग सभी कार्बनिक कीटनाशी जल में अघुलनशील होते हैं जिसके कारण शीघ्र ही यह पैंदे पर बैठने लगते हैं अतः इसमें एक आर्द्रक को साथ में मिलाते हैं जो इनके कणों को पानी में घोले रखता है । सामान्यतया इस संरूपण में 25 , 40 व 50 प्रतिशत कीटनाशी की मात्रा उपस्थित रहती है । इनकी क्रियाशीलता 1 से 2 प्रतिशत पृष्ठ सक्रिय भिगोने वाले अथवा विस्थापित करने वाले कारकों को मिलाकर बढ़ायी जा सकती है ।
द्रव संरूपण ( Liquid Formulation ) –
1. पायसीकरणीय सांद्र ( Emulsifiable Concentrate or EC ) – पायसीकरणीय सांद्र कीटनाशियों का एक सामान्य संरूपण है जो कीटनाशी , इसके विलायक तथा पायसीकारकों के मिश्रण से बनाया जाता है । पायसीकारक इस विलयन ( घोल ) को स्थिरता , गीला करने एवं फैलाने के गुण प्रदान करता है । जब इन्हें जल में मिला दिया जाता है तो यह ऐसे पायस में परिवर्तित हो जाता है जैसे तेल को जल में मिला दिया गया हो । फसलों को उपचारित करने के लिए जल्दी से विघटित होने वाले सांद्रो का प्रयोग किया जाता हैं , जिससे उपचारित भाग पर कीटनाशी के विषाक्त अवशेषों में कमी आती हैं ।
2. विलयन ( Solution ) – वे संश्लेषित कार्बनिक कीटनाशी जो जल में विलयशील नहीं होते उनका उपयोग कार्बनिक विलायकों ( तेल , ईथर अथवा पैराफिन तेल ) में मिलाकर किया जाता है और इनका ज्यों का त्यों सीधा उपयोग घरेलु कीटों , मच्छरों तथा जलीय कीटों के नियंत्रण हेतु हस्त फुहाकर ( Hand sprayers ) द्वारा किया जाता है । जैसे फिनिट
3. सांद्र कीटनाशी द्रव ( Concentrate liquid insecticide ) – यह कीटनाशियों का एक ऐसा द्रव संरूपण है , जिसमें जल मिलाकर इसकी शक्ति को तनु नहीं किया जाता है तथा इसे बहुत ही निम्न घनत्व में प्रयोग में लिया जाता है जैसे फास्फेमिडान का आइसोप्रोपाइल ऐल्कोहॉल में विलयन तथा मेलाथियान का 95 प्रतिशत सांद्र कीटनाशी द्रव ।
4. वायु विलय ( Aerosol ) – कीटनाशियों की सूक्ष्म कणिकाएँ हैं जो हवा में धुंध या कुहरा के रूप में झूलते रहते हैं । उच्च दाब पर छिद्र से निकलने वाली गैस तीव्रता से वाष्पित होते हुए हवा में कीटनाशी की सूक्ष्म कणिकाओं ( Microscopic Particles ) को छोड़ देती है जो धीरे – धीरे फसलों पर जम जाती हैं व ऐसी विषाक्त पत्तियों को खाकर नाशीकीट मर जाते हैं । वायु – विलय ( ऐरोसॉल ) का उपयोग हवाई जहाज अथवा हैलीकॉप्टर से किसी बड़े क्षेत्र में कीट विशेष के नियंत्रण हेतु छिड़काव किया जाता है । उदाहरणार्थ टिड्डी का प्रकोप आदि ।
5. धूमक ( Fumigant ) – कीटनाशियों की वाष्पशील अवस्था को धूमक कहते हैं । धूमक वे संरूपण हैं , जिनमें दबाव के अन्तर्गत द्रव अवस्था में रखा जाता है । इनका प्रयोग संचयित अनाज के भण्डारगृहों , कोठियों , गोदामों एवं जहाज के लदानों में किया जाता है । जैसे एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की गोलियाँ ।
6. कीटनाशी उर्वरक मिश्रण ( Mixed Formulation of Insecticides and Fertilizer ) – बुवाई के समय कीटनाशियों तथा उर्वरकों को मिलाकर प्रयोग में लाया जाता है जिससे भूमि में उपस्थित नाशक कीटों का नियंत्रण हो जाता है ।
7. कीटनाशियों के मिश्रित संरूपण ( Mixed Formulation of Insecticides ) – आजकल दो या उससे अधिक कीटनाशियों के सक्रिय घटकों के मिश्रण के बने हुए संरूपण का प्रचलन बहुत हो रहा है । इस प्रकार के संयोजनों को ” संयुक्त क्रिया ” के नाम से जानते हैं और इनमें संयुक्त अविषालु क्रिया ( Joint Toxic Action ) होती हैं ।
कीटनाशियों का वर्गीकरण ( Classification of Insecticides ) : कीटनाशियों का वर्गीकरण हम कुछ बुनियादी आधारों पर तीन प्रकार से कर सकते हैं –
( 1 ) कीटों के शरीर में प्रवेश करने के आधार पर ।
( 2 ) क्रिया – विधि के आधार पर
( 3 ) रसायनों के स्वभाव अथवा सक्रिय घटकों के आधार पर ।
( 1 ) कीटों के शरीर में प्रवेश करने के आधार पर ( Based on Mode of Entry ) : कीटों के शरीर में प्रवेश करने के आधार पर कीटनाशियों को तीन रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं –
1. संस्पर्श विष ( Contact Poison ) – ये कीटनाशी कीटों के क्यूटिकल के सम्पर्क में आने पर उसके अंगों में शोषित होकर अपना घातक प्रभाव दर्शाते हैं । इनका प्रयोग धूलि अथवा छिड़काव के रूप में किया जा सकता हैं ।
2. जठर विष ( Stomach Poison ) – इसमें कीटनाशियों का प्रयोग कीटों के भोज्य पदार्थों पर किया जाता हैं । यह भोजन जब कीटों के ” काटने – चबाने ” या ” चुभाने व चूसने ” वाले मुखांगों द्वारा शरीर के अन्दर ग्रहण करते हैं तो कीट , कीटनाशियों की आविषालुता के कारण मर जाते हैं ।
3. धूमक ( Fumigant ) – ये कीटनाशी वाष्पशील होते हैं तथा विषैली गैस छोड़ते हैं जो श्वास रंध्रों द्वारा गैसीय अवस्था में कीटों के श्वसन नलिकाओं में प्रवेश करके श्वासवरोध करते हैं जिससे कीट मर जाते हैं । इनका प्रयोग वायुरोधी स्थानों पर संचयित अनाज के कीटों के नियंत्रण हेतु करते हैं ।
( 2 ) क्रियाविधि के आधार पर ( Based on Mode of Action ) : कीटनाशी के शरीर में प्रवेश करके उनके अलग – अलग तन्त्रों को प्रभावित करते हैं । इस आधार पर कीटनाशियों को निम्न समूहों में वर्गीकृत कर सकते हैं –
1. भौतिक विष ( Physical Poison ) – वास्तव में यह विष नहीं होते । यह कीटों को दम घोटकर या उन्हें निर्जलीकरण कर मार डालते हैं । इनमें श्वासरोधी तथा अवघर्षक प्रभाव मुख्य होते हैं ।
2. जीवद्रव्यी विष ( Protoplasmic Poison ) – यह विष कीटों की आहार नलिका में पचे हुए भोजन के साथ अवशोषित हो जाते हैं , कोशिकाओं के जीव द्रव्य में उपस्थित प्रोटीन्स पर प्रभाव डालते हैं , जिससे उसकी प्रोटीन का अवक्षेपण हो जाता है औ र कोशिकाएँ मर जाती हैं तथा साथ ही कीट भी मर जाते हैं ।
3. श्वसन विष ( Respiratory Poison ) – इस प्रकार के कीटनाशी श्वसन तन्त्र में प्रवेश कर श्वसन सम्बन्धी एन्जाइमों को निष्क्रिय कर देते हैं जिससे कीट मर जाते हैं ।
4. तंत्रिका विष ( Nerve Poison ) – जो कीटनाशी शरीर में प्रवेश कर ज्ञान तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करते हैं , तंत्रिका विष कहलाते हैं । ये प्राथमिक रूप से ऊतकों की वसा में घुल जाते हैं तथा कीटों एसिटिल कोलिनस्ट्रेज एन्ज़ाइम का संदमन करते हैं , जिससे कीट बेहोश होकर मर जाते हैं ।
( 3 ) रसायनों के स्वभाव के आधार पर ( Based on Chemical Nature ) – कीटनाशियों को उनके रासायनिक स्वभाव के अनुसार दो मुख्य वर्गों अकार्बनिक एवं कार्बनिक में बाँटा जा सकता है –
1. अकार्बनिक कीटनाशी ( Inorganic Insecticides ) – आजकल इनका प्रयोग लगभग नगण्य है । इनका प्रचलन संश्लेषित कार्बनिक यौगिकों से पूर्व अधिक होता था । सामान्यतया ये कीटनाशी धातु उद्भवी हैं तथा इस वर्ग के सभी यौगिक भोजन द्वारा अर्न्तग्रहित होकर कीटों को मारते हैं । इनमें निम्नलिखित मुख्य हैं –
( i ) आर्सेनिक यौगिक ( Arsenical Compounds ) – आर्सेनिक के सभी यौगिक कीटों और स्तनधारियों के लिए अति विषैले आन्तरिक विष होते हैं । उदाहरणार्थ लेड आर्सेनेट , कैल्शियम आर्सेनेट एवं सोडियम आर्सेनेट , पेरिस ग्रीन ( कॉपर ऐसीटो- आर्सेनेट ) , आर्सेनिक ऑक्साइड्स इत्यादि ।
( ii ) फ्लुओरीन यौगिक ( Fluorine Compounds ) – यह आर्सेनिक लवणों की अपेक्षा स्तनधारियों के लिए कम विषैले परंतु कीटों के लिए अधिक विषैले और पौधों के लिए सुरक्षित , यह संस्पर्श विष के साथ जठर विष का भी कार्य करते हैं । उदाहरणार्थ- सोडियम फ्लुओराइड , सोडियम फ्लुओ ऐलुमिनेट तथा क्रायोलाइट आदि ।
( iii ) गंधक और उसके यौगिक ( Sulphur and its Compounds ) – ये कीटनाशी बरूथीनाशक और कवकनाशी के रूप में प्रयोग किये जाते हैं । इसका अवशिष्ट प्रभाव कम रहता हैं परंतु इनके प्रयोग से धातु की चीजें काली पड़ जाती हैं । कपड़ों का रंग उड़ जाता हैं , बीजों के उगने की क्षमता प्रभावित होती है तथा दुर्गन्ध आती हैं । उदाहरणार्थ गन्धक धूलि , धुलनशील गंधक , इत्यादि ।
( iv ) फॉस्फोरस यौगिक ( Phosphorus Compounds ) – फॉस्फोरस यौगिकों में सबसे अधिक प्रयोग में आने वाला यौगिक जिंक फॉस्फाइड है , जिसे टिड्डों तथा झींगुरों के विरूद्ध प्रयोग में लाया जाता था , परंतु चूहों के नियंत्रण के लिये इसे विलोभक के रूप में उपयोग किया जाता है ।
2. कार्बनिक कीटनाशी ( Organic Insecticides ) – इसके अंतर्गत निम्नलिखित कीटनाशियों के समूह आते हैं –
( i ) जन्तु कीटनाशी एवं उनके व्युत्पन्न ( Animal insecticides and their derivatives ) – इसका प्रमुख उदाहरण नेरीसटाक्सीन ( Nereistoxin ) , जिसका व्यापारिक नाम पादन ( Padan ) है । यह समुद्र में पाये जाने वाले ऐनेलिड , लम्ब्रिकोनेरीस हेट्रोपोडा व लम्ब्रिकोनेरीस ब्रेवीसिरा से प्राप्त होता है तथा यह कीटों के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को सुन्न ( लकवा ) कर देता है जिससे कीट मर जाते हैं ।
( ii ) वानस्पतिक कीटनाशी और उनके व्युत्पन्न ( Plant insecticides and their derivatives ) – यह विष पौधों की जड़ों , तनों , पत्तियों , फूल एवं फलों ( बीजों ) से प्राप्त होते हैं इनकी विशेषता यह है कि ये पौधों के लिए पूर्ण सुरक्षित और स्तनधारियों के लिए भी कम विषाक्त होते हैं । निकोटीन , पायरिथ्रम तथा रोटेनोन वानस्पतियों तथा उनके व्युत्पन्नों इसके कुछ उदाहरण हैं , इनका प्रयोग संस्पर्श कीटनाशियों के रूप में किया जाता है ।
पाइरेथ्रम ( Pyrethrum ) – यह क्राइसेन्थेमम सिनरेरीफोलियम तथा क्राईसेन्थेमम कौक्सीनियम नामक पादप के फूलों को पीस कर , उनका रस निकालकर प्राप्त किया जाता है । यह सूर्य के प्रकाश हवा एवं नमी में जल्दी प्रभावित होकर निर्विष – पदार्थों में टूट जाता है । इसलिए इनके कीट नाशक गुण को बनाये रखने के लिए उन्हें रंगीन बोतलों अथवा सील बन्द डिब्बों में सूखे स्थान पर कम तापक्रम पर रखते है । यह धूलि , धूलनशील चूर्ण एवं ऐरोसाल के संरूपण में उपलब्ध है ।
नीम ( Neem ) – इसकी उत्पत्ति भारत में हुई हैं । इसका वैज्ञानिक नाम एजाडिरेक्टा इंडिका हैं । नीम के सभी भागों में कीटनाशी गुण होते है , परंतु निम्बोली में सबसे अधिक होता है । इसका महत्त्वपूर्ण सक्रिय घटक एजेडिरेक्टिन होता हैं जो कई नाशीकीटों के विरूद्ध प्रतिकर्षी , भक्षणनिरोधक तथा कीटनाशक क्रिया दर्शाता है जैसे- मरू टिड्डी , धान का भूरा पादप फुदका , धान का पत्ती मोड़क , सैन्य कीट , गोभी की हीरक तितली , चने का फली वेधक , कपास की चितकबरी लट् , बैंगन इत्यादि ।
( iii ) तेल तथा उनके पायस ( Oil and their emulsions ) – तेल हाईड्रोकार्बनों के जटिल मिश्रण हैं । यह दो प्रकार के होते हैं , पेट्रोलियम तेल और कोलतार तेल जिनका कीटनाशी के रूप में फसलों पर सीमित रूप से प्रयोग किया जाता हैं क्योंकि अधिक मात्रा में प्रयोग करने पर यह हानिकारक होते हैं । इनका उपयोग पायस के रूप में किया जाता हैं तथा छिड़काव की सान्द्रता 1 से 3 प्रतिशत के बीच होनी चाहिये जिससे कि पादप विषैले ना हो । यह शल्क कीट , चुर्णी मत्कुण ( मिलीबग ) , सफेद मक्खी , बरूथी एवं उनके अण्डों के विरूद्ध प्रभावी है । यह कीटों को श्वासावरोध उत्पन्न कर मारते हैं ।
( iv ) कार्बनिक थायोसायनेट ( Organic thiocyanate ) – यह कीटनाशी नाशीकीटों के अंडे , डिम्भकों तथा वयस्कों के लिए विषैले होते है , इसमें थानाइट , लीथेन 60 एवं लीथेन 384 प्रचलन में ज्यादा है । सभी कार्बनिक थायोसायनेट संस्पर्श विष होते हैं और ये उड़ने वाले कीटों को लकवा ग्रस्त कर उनको मार देते है ।
( v ) सल्फोनेट , सल्फाइड एवं सल्फोन ( Sulphonate , Sulphide and Sulphon ) – इन समूह के यौगिक संस्पर्श बरूथीनाशक होते है , जिनमें टेट्रासोल , टेट्राडीफोन , एरामाइट ओवेक्स , मोरटान , पी – क्लोरोफिनाइल , फिनाइल सल्फोन तथा अन्य सल्फोन मुख्य है । यह बरूथीनाशी अण्डों तथा डिम्भकों को मारते है । ये पादप विषाक्तता तथा बरूथीयों में प्रतिरोधकता उत्पन्न करते हैं । अतः इनका उपयोग भी काफी सीमित हो गया है ।
( vi ) डाइनाइट्रोफिनॉल ( Dinitrophenol ) – इनका उपयोग कीटों एवं बरूथीयों के अण्डो , डिम्भकों तथा वयस्कों के विरूद्ध प्रभावी पाया गया है , जो संस्पर्श अथवा अन्तर्ग्रहण द्वारा विषाक्तता प्रदर्शित करते हैं । पादप विषाक्तता के कारण इनका प्रयोग सीमित होता है ।
2. बरूथीनाशी ( Miticides ) – वे रसायन हैं जो पादप भक्षी बरूथियों को मारते हैं , उन्हें बरूथीनाशी कहते हैं । बरूथियाँ पौधों की पत्तियों , कलियों एवं फूलों का रस चूसकर उनमें कई प्रकार की बीमारियाँ भी फैलाती हैं । इनका माप बहुत छोटा होता है , उतनी ही संख्या में ये ज्यादा होती हैं व बहुत हानि पहुँचाती हैं । इनको सूक्ष्मदर्शी से देखना पड़ता है । इनके नियंत्रण हेतु सर्वप्रथम गंधक का प्रयोग सन् 1920 से शुरू हुआ जो अब तक चला आ रहा हैं । इसके पश्चात् क्लोरोनित हाइड्रोकार्बन्स का उपयोग शुरू हुआ व कई नये बरूथीनाशकों का संश्लेषण भी हुआ । जैसे- डाइकोफाल ( Dicofol ) , क्लोरोबें जिलेट ( Chlorobenzilate ) , कार्बोफिनोथियोन ( Carbophenothion ) ।
3. कृन्तकनाशी ( Rodenticides ) – चूहे , गिलहरी व अन्य कुतरने वाले कृन्तक जन्तुओं ( Rodents ) को मारने में प्रयोग होने वाले रसायनों को कृन्तकनाशी या मूषकनाशी कहते हैं । यह कृन्तक जन्तु खेतों , घरों , गोदामों आदि स्थानों पर अनाज , फसलों तथा घरेलु एवं खाद्य सामग्री को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं । ये बड़े चालाक , शंकालु , तेजी से वृद्धि करने वाले तथा लगभग सभी जगहों पर पाये जाते हैं । कृन्तकनाशियों को हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं –
( अ ) तीव्र ( Acute ) कृन्तकनाशी
( ब ) दीर्घकाली ( Chronic ) कृन्तकनाशी
( स ) धूमक ( Fumigants ) कृन्तकनाशी
( अ ) तीव्र ( Acute ) कृन्तकनाशी – इसके अन्तर्गत एक मात्रा वाले विष आते हैं जिनकी एक खुराक खाने मात्र से चूहे कुछ की घण्टों में मर जाते हैं । उदाहरणार्थ जिंक फास्फाइड , बेरियम कार्बोनेट , अन्टू एवं थेलियम सल्फेट आदि । इन कृन्तकनाशियों से विष प्रलोभन बनाकर काम में लिया जाता हैं । इनमें जिंक फास्फाइड का उपयोग अधिक किया जाता हैं । जिंक फास्फाइड के 2 भाग को 97 भाग बाजरा , ज्वार , मक्का या गेहूँ के दलिया एवं 1 भाग खाने का तेल मिलाकर विष प्रलोभक तैयार कर लेते हैं जिसे कागज अथवा मटकी के छोटे टुकड़े पर रख कर रात को घरों , गोदाम अथवा खेतों में चूहों के आने जाने वाले रास्तों एवं बिल में रख देते हैं एवं विष प्रलोभक के खाने पर चूहों की मृत्यु हो जाती है । इस विष का अवगुण यह हैं कि चूहे उसकी दुर्गन्ध को पहचान लेते हैं व उसके पश्चात् उसे कतई नहीं खाते । अतः उन्हें धोखा देने के लिये 2-3 दिन तक सादा आटे का विषहीन चुग्गा खिलाना चाहिए ताकि चूहों का स्वभाव चुग्गे का खाने का हो जाये और तब विष चुग्गा रख दिया जाये तो इसमें अधिक सफलता मिलती हैं व विष शंकालुता दूर हो जाती हैं ।
( ब ) दीर्घकाली ( Chronic ) कृन्तकनाशी – इसके अंतर्गत बहु मात्रा वाले विष आते हैं जिनसे बना चुग्गा कई बार खिलाना पड़ता हैं । ये रसायन प्रतिस्कन्दक ( Anticoagulants ) भी कहलाते हैं क्योंकि इस विष चुग्गे का 1 सप्ताह तक खिलाने पर रसायन संचयी ( Cumulative ) प्रभाव से चूहों में रक्त के जमाव ( स्कन्दन ) को रोकते हैं । परिणामस्वरूप आन्तरिक व बाहरी रक्तस्राव के कारण चूहे मर जाते हैं । अतः पूर्व प्रलोभन की जरूरत नहीं पड़ती व चूहे इन चुग्गों को बड़े चाव से व बिना भय के खाते हैं । उदाहरणार्थ- वारफेरिन , रोडाफेरन , क्यूमेफुरिल तथा रेक्यूमिन आदि । वारफेरिन का 0.025 प्रतिशत ( सक्रिय तत्त्व ) अनाज के साथ चुग्गे में प्रयोग किया जाता हैं । इनके अतिरिक्त आजकल कुछ नवीन प्रतिस्कन्दक विष भी उपलब्ध हैं जैसे ब्रोमेडियालान ( मूश – मूश , सुपरकेड ) , फ्लोक्यमेफेन , बोडीफेक्यूम ( टेलोन ) तथा क्लोरोफैसीनोन ( डरेट ) जिनका प्रयोग अधिक प्रचलित हैं ।
( स ) धूमक ( Fumigants ) कृन्तकनाशी – इसके अन्तर्गत एल्युमिनियम फास्फाइड आता हैं जो एक प्रमुख धूमक है व इसका उपयोग खेतों में चूहों के बिलों को उपचारित करने में बहुत प्रभावी होता हैं ।
कीटनाशियों का सुरक्षित उपयोग ( Safe use of Insecticides ) – कीटनाशकों का उपयोग करते समय निम्न बिन्दुओं पर विचार करना उपयुक्त रहता हैं –
• सर्वप्रथम अत्यधिक आवश्यकता होने पर ही कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए ।
• कीटनाशक लाइसेन्स शुदा विश्वसनीय दुकानदार से जरूरत के मुताबिक ही खरीदें ।
• कीटनाशक आई . एस . आई . मार्का के नाम के ही काम में लेवें तथा भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित व अधिक जहरीले कीटनाशक काम में न लें ।
• कीटनाशकों को घरेलू सामान के साथ रखकर न लायें एवं बच्चों की पहुँच से दूर ठण्डी जगह पर ताले में रखें ।
• कीटनाशकों का डिब्बा वास्तविक सील से बन्द हो तथा टूटा- फूटा न हो । लेबल डिब्बे पर अच्छी तरह चिपका हुआ हो । जहर खत्म होने की तारीख मियाद अवधि खरीदते समय पढ़ लेनी चाहिए ।
• कभी भी अकेले व्यक्ति को छिड़काव का कार्य नहीं करना चाहिए एवं छिड़काव करने वाला व्यक्ति पूर्ण रूपेण स्वस्थ हो तथा बच्चों व पशुओं को छिड़काव क्षेत्र से दूर रखें ।
• छिड़काव पौधों पर समान रूप से करें ।
• मुँह पर कपड़ा मास्क बाँधे तथा हाथों में दस्ताने पहनें तथा आँखों पर चश्मा लगावें ।
• वर्षा आने की स्थिति या तेज हवा में छिड़काव नही करना चाहिए । छिड़काव हवा के विपरीत दिशा में न करें ।
• छिड़काव कमर से नीचे करें जिससे श्वास के साथ दवा अन्दर न जावें , नोजल में फूक न मारें ।
• छिड़काव के तुरन्त बाद साबुन से स्नान करें व कपड़ों को धोवें छिड़काव यंत्रों को साबुन के घोल से अच्छी तरह साफ रखें ।
• खाली डिब्बों को तोडकर मिट्टी में दबा दें व बचे हुए कीट नाशक को सुरक्षित स्थान पर तालें में रखें ।
• छिड़काव किए हुए खेत न घूमें व पशुओं को दूर रखें । फल – सब्जियों व हरे चारे को छिड़काव के बाद 8-10 दिन तक काम में न लेवें ।
कीटों का यांत्रिक नियंत्रण ( Mechanical Control of Insect Pest )