कीट एवं रोगों का जैविक नियन्त्रण ( Biological Control of Insect and Diseases )
फसलों की कीटों एवं रोगों से सुरक्षा करना सफल फसल प्रबन्धन का एक महत्वपूर्ण अंग है । कीटों एवं रोगों द्वारा फसलों की उपज में 10 से 100 प्रतिशत तक हानि हो सकती है । ऐसा आँकलन किया गया है कि उपज में होने वाले कुल नुकसान में कीटों से 26 प्रतिशत तथा रोगों से 20 प्रतिशत हानि होती है । अतः विभिन्न रासायनिक तथा अरासायनिक विधियों से कीट एवं रोगों का प्रबन्धन करना आवश्यक है । लोकसभा की स्टेण्डिंग कमेटी ऑन एग्रीकल्चर ( 2015-16 ) के अनुसार हमारे देश में वर्ष 2013-14 में पेस्टीसाइड की कुल खपत 57353 मेट्रिक टन थी । जबकि राजस्थान में इनकी मात्रा 2736 मेट्रिक टन थी । हमारे देश में पेस्टीसाइड की अधिकतर मात्रा को विदेशों से आयात किया जाता है । वर्ष 2013-14 में 512209 लाख रूपये का 77376 मेट्रिक टन ( तकनीकी श्रेणी ) पेस्टीसाइड का आयात किया गया । हमारे देश की कृषि में पेस्टीसाइड का उपयोग बढ़ रहा है ।
जैविक खेती में फसलों में कीट एवं व्याधि नियन्त्रण की विधियाँ –
1. सस्य नियन्त्रण ( Crop control ) – स्वच्छता , भू – परिष्करण , उचित फसल चक्र , बुआई के समय में परिर्वतन , उचित पोषक , तत्व प्रबन्धन , प्रपंच फसलें , मिश्रित फसलें , कटाई – छँटाई , आदि ।
2. यान्त्रिक नियन्त्रण ( Mechanical control ) – हाथ से पकड़कर नष्ट करना , पौधों को झाड़कर , खाई खोदना , कीट प्रपंच अवरोध लगाना , पौधो के चारों ओर जाली लगाना आदि ।
3. जैविक नियन्त्रण ( Biological control ) – परजीव्याभ , परभक्षी कीट , रोगाणु , सूत्रकृमि , विशाणु आदि ।
4. वानस्पतिक कीटनाशकों का प्रयोग ( Use of botanical insecticides ) – नीम , करंज , लहसुन आदि ।
1. कीट एवं व्याधि नियन्त्रण के जैविक उपाय ( Biological measures for pest and disease control ) – हानिकारक जीवों की रोकथाम व उनके प्रभाव को कम करने या उनको नष्ट करने के लिये इनके प्राकृतिक शत्रुओं का उपयोग करना ही जैविक जीवनाशक या जैविक नियन्त्रण कहलाता है ।
कीट एवं व्याधियों के जैविक नियन्त्रण के घटक निम्न हैं –
1. रीढ़धारी शिकारी जीव ( Vertebrate predatory animal ) – कुछ रीढ़धारी जीव हानिकारक कीटों को पकड़कर भक्षण करते हैं जिससे उनकी संख्या सीमित रहती है । इन जीवों में मछलियाँ , सर्प , मेढ़क , पक्षी , आदि मुख्य हैं । परन्तु इनका जैविक नियन्त्रण के रूप में प्रयोग कम ही हुआ है । उदाहरण – चने के खेत मे फली छेदक के नियन्त्रण हेतु मांसाहारी पक्षियों का उपयोग किया जाता है । चिड़ियो को आकर्षित करने के लिए एक हेक्टेयर क्षेत्र में 200 लकड़ी की खपच्चियाँ 40-50 सेमी . ऊँचाई पर लगायें । या T आकार के अड्डे लगायें ।
2. परभक्षी कीट ( Predatory insect ) – प्रकृति में कई प्रकार के परभक्षी मित्र कीट हानिकारक कीटों को खाकर अपना जीवनयापन करते हैं । इनमें मुख्य परभक्षी कीट निम्न हैं
( i ) क्राइसोपिड्स ( Chrysopidae ) – क्राइसोपिड्स एक परभक्षी कीट है जो मुलायम शरीर वाले कीट चैपा , थ्रिप्स , जैसिड्स , फुदका , मिलीबग , सफेद मक्खी एवं लेपिडोप्टेरा गण के कीटों के अण्डों व सूंडियों को खाते हैं । भारत में इनकी 21 जातियाँ पाई जाती हैं , जिसमें 4 मुख्य हैं । फसलों में 50,000 सूंडियाँ प्रति हेक्टेयर एवं फलदार वृक्षों में 10-20 सूंडियाँ प्रति पेड़ छोड़ते हैं ।
( ii ) कोक्सीनेला स्पीशीज ( Coccinella species ) – यह परभक्षी कीट सभी प्रकार के माहू / चैपा का भक्षण करते हैं । ये कीट खेत में छोड़ने के एक सप्ताह के भीतर माहू को समाप्त कर देते हैं । इस कीट के वयस्क एवं शिशु दोनों ही रस चूसक कोमल नाशीजीवों का भक्षण कर उनकी प्राकृतिक रोकथाम करते हैं ।
उदाहरणतः कोक्सीनेला सप्टमपंकटेटा , मिनोकाईल्स , सेक्समेकूलेट्स , क्रिप्टोलियम , ब्रूम्स , आदि
रेडुवीड् बग्स – राईनोकोरस् , कोरेनस् आदि ये परभक्षी बग विभिन्न सुण्डियों का भक्षण कर उनकी प्राकृतिक रोकथाम करती हैं ।
3. परजीवी कीट ( Parasitic insect ) – जैविक नियन्त्रण में परजीवी कीटों का महत्वपूर्ण स्थान है ।
हानिकारक कीटों की विभिन्न अवस्थायें जैसे – अण्डे , सुण्डी , शंकू एवं प्रौढ़ अवस्था अनेक प्रकार के परजीवों के माध्यम से प्राकृतिक रूप से नियन्त्रित होती हैं ।
अण्ड परजीव्याभ – ट्राईकोग्रामा , टिलोनोमस आदि
अण्ड – सुण्डी परजीव्याभ – चिलोनस्
सुण्डी परजीव्याभ – कोटेसिया , ब्रेकोन , किलियोनिस , कैम्पोलेटिस , आईसोटिमा , स्टेनोब्रेकन आदि
शंकू परजीव्याभ – प्लेटीगैस्टर
रस चूसक कीटों के परजीव्याभ – इपीरिकेनिया , एनकार्सिया , एल्पोट्रोपा आदि
( i ) ट्राइकोग्रामा ( Trichogramma ) – यह एक अण्ड परजीवी है जो हानिकारक कीटों विशेष तौर से लेपीडोप्टेरा गण के कीटों के अन्दर अपने अण्डे देता है । ट्राइकोग्रामा के एक कार्ड पर लगभग 16000-20000 पोश्य कीटों के परजीवी अण्डे होते हैं । यह कीट आकार में बहुत छोटे होते हैं जो केवल 5-7 मीटर तक उड़ सकते हैं । फसलों में ट्राइकोग्रामा का उपयोग गन्ने में जड़ , तना एवं शीर्ष भेधक , कपास मे बॉलवार्म , बैंगन में फल छेदक तथा धान एवं टमाटर में तना छेदक के नियन्त्रण के लिए किया जाता है । भारत में पेस्टीसाइड का उपयोग 600 ग्राम प्रति हैक्टेयर है । यह मात्रा अन्य विकसित देशों की अपेक्षा कम है लेकिन बढ़ती लागत 50,000 – 1,50,000 अण्डे ( 2.5 7.5 ट्राइकोकार्ड ) प्रति हेक्टेयर 2 से 6 बार प्रयोग करते हैं ।
( ii ) इपीरिकेनिया ( Epiricania ) – इस परजीवी का उपयोग गन्ना में पायरिला के प्रभावी नियन्त्रण हेतु किया जाता है ।
4. फफूंद ( Mold ) – फफूंद जैविक जीवनाशी का एक बड़ा समूह है । फफूंद की अनेक जातियाँ कीटों को नष्ट करने में सक्षम है । फाइको माइसीटिज , एस्कोमाइसीटिज , बेसिडियोमाइसीटिज वर्ग के विभिन्न फफूंद जीवनाशी के रूप में प्रयोग किये जा सकते है । प्रतिरोधी फफूंद का उपयोग फफूंदजनित रोगों के निवारण में किया जाता है ।
ट्राइकोडर्मा ( Trichogramma ) – यह एक मित्र फफूंद है जो मृदा में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार की हानिकारक फफूंदों के प्रबन्धन में महत्वपूर्ण योगदान देती है । जैविक खेती में इस समूह की फंफूदों का महत्व और भी बढ़ जाता है । ट्राइकोडर्मा को बीज , जड़ एवं भूमि उपचार में अनुमोदित मात्रा में प्रयोग किया जाता है । बीजोपचार हेतु 6–8 ग्राम ट्राईकोडर्मा प्रति किग्रा . बीज की दर से प्रयोग करते हैं । इसका उपयोग चने में उखटा , मूंगफली में कॉलर रोट , सोयाबीन में जड़ सड़न आदि के नियन्त्रण हेतु किया जाता है ।
5. जीवाणु ( Bacteria ) – कीटों और फसल रोगों के नियन्त्रण में जीवाणुओं का उपयोग सफलतापूर्वक व्यापारिक रूप से हो रहा है । बैसीलस थूरिन्जेन्सिस ( बी.टी. ) एक प्रचलित कीटनाशी है जो लेपीडोप्टेरा , डिप्टेरा , कोलिओप्टेरा गण के कीटो का प्रभावी नियन्त्रण करता है । विभिन्न फसलों में इन गणों के कीटों के नियन्त्रण के लिए फसल की उपयुक्त अवस्था पर बी.टी. का 1.0 किग्रा . प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव किया जाता है ।
6. सूत्रकृमि ( Nematode ) – सूत्रकृमि कीटों पर बाह्य एवं आन्तरिक रूप से परजीवी होते हैं । फसलों के हानिकारक कीटों को मारने में स्टेनरनिमेटिडी कुल व हेटरोरेवेटिडी के सूत्रकृमि मुख्य हैं । जिनका प्रयोग विभिन्न सुण्डियों की रोकथाम हेतु किया जाता है । राइटाइडीस , पैनग्रोलेम्स और नेयोएप्लेक्सना जाति के सूत्रकृमि का प्रयोग मक्का में तना छेदक , चने में फली छेदक तथा धान में तना छेदक कीटों की रोकथाम हेतु किया जाता है ।
7. प्रोटोजोआ ( Protozoa ) – विभिन्न प्रकार के प्रोटोजोआ कीटों में संक्रमण फैलाते हैं । नोजेमा जाति के प्रोटोजोआ को टिड्डे के नियन्त्रण में सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है ।
8. विषाणु ( Virus ) – अभी तक 7 कुल के विषाणु कीटों को मारने में सक्षम पाये गये हैं । इनमें से बेकुलो विरीडी कुल के विषाणुओं पर अधिक कार्य हुआ है । इस कुल मे एन.पी.वी. ( न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस ) व जी . वी . ( ग्रेनुलोसिस वायरस ) प्रमुख हैं । उदाहरण चने मे फली छेदक के नियन्त्रण हेतु हेलिकोवर्पा एन.पी.वी. 250 एल.ई. का 750 मिली . प्रति हेक्टेयर छिड़काव किया जाता है ।
2. वानस्पतिक उत्पादों से कीट – व्याधि नियन्त्रण ( Insect – disease control with botanical products ) – भारत वर्ष में विभिन्न वनस्पतियों का उपयोग औषधियों और अन्न भण्डारण में तथा फल व फूल के रख रखाव हेतु प्राचीन काल से ही हो रहा है । वनस्पति के किसी भाग जैसे जड़ , तना , पत्तियाँ , फल , फूल , बीज , आदि का प्रयोग कर कीट व व्याधि की रोकथाम की जाती है । पौधे अपनी द्वितीयक उपापचय क्रियाओं में टरपेनोइड , एल्केलॉइड , फ्लेवेनोइड , अमीनों अम्ल आदि रसायन उत्पन्न करते हैं जो कि कीटों में प्रतिकर्षण व खाने में अरूचि पैदा करते है । यही रसायन पौधों को कीट एवं व्याधियों से सुरक्षा प्रदान करते हैं ।
हमारे देश में कई पौधे जैसे नीम , करंज , तम्बाकू , सीताफल , क्राइसेंथेमम , लहसुन आदि पाये जाते है जिनके विभिन्न उत्पादों से फसलों में कीट – व्याधियों का नियन्त्रण आसानी से किया जा सकता है ।
1. नीम ( Neem tree ) – नीम व नीम उत्पादों का फसलों में कीट व व्याधियों के नियन्त्रण में उपयोग नया नहीं है । हमारे देश में नीम की पत्तियों का प्रयोग अनाज भण्डारण में अनादि काल से किया जा रहा है । हालांकि 1959 में जर्मनी के कीट वैज्ञानिक ने बताया कि सूडान में नीम एक मात्र ऐसा वृक्ष पाया गया जो असंख्य टिड्डियों के आक्रमण भी से बचा रहा । नीम के सभी भाग पत्तियाँ , तना , फूल , फल , छाल तथा बीज में कीटनाशक गुण पाये जाते हैं ।
नीम की खली का उपयोग करने से मृदा की उर्वरा शक्ति तो बढ़ती ही है साथ में कई भूमिगत कीटों जैसे दीमक आदि से फसल की सुरक्षा होती है । नीम की पत्ती या निम्बोली के 10 प्रतिशत घोल का छिड़काव करने से कई कीटों की रोकथाम होती है । जैसे- मक्का व ज्वार में तना छेदक , चने में फली छेदक आदि ।
नीम के उत्पादों में 100 से ज्यादा प्रभावकारी रासायनिक तत्व पाये जाते हैं । इन तत्वों में लिमोनोइड तत्वों का समूह ( ट्राइटरपीनोइट्स ) मुख्य है जिसमें अजाडेरोटिन , निम्बिन , निम्बिडिन , सेलानिन सेलानोल , क्विरसेटिन आदि तत्व प्रमुख हैं । नीम के बीजों में अजाडेरेच्टिन मुख्य तत्व है । नीम के बीजों में लगभग 2 से 6 प्रति किलो दाना अजाडेरेच्टिन पाया जाता है । इसके कारण नीम में कड़वापन होता है । नीम की बीजों में उपलब्ध टिग्निक एसिड के कारण नीम तेल में विशेष गन्ध आती है ।
2. क्राइसेंथेमम ( Chrysanthemum ) – क्राइसेंथेमम के सूखे फूल आदिकाल से कीटनाशक के रूप में उपयोग में लाये जा रहे हैं । भारत में कीटनाशी के रूप में इसका उपयोग सब्जी व फलों तक ही सीमित है ।
3. तम्बाकू ( Tobacco ) – तम्बाकू में पाया जाना वाला निकोटिन कीटनाशक के रूप में कार्य करता है तम्बाकू की पत्तियों का रस सरसों में माहू , कपास की सफेद मक्खी , थ्रिप्स व बालवर्म को प्रभावी रूप से नियन्त्रित करता है । धान में भूरा हरा फुदका व चने की इल्ली के नियन्त्रण हेतु तम्बाकू की पत्तियों के घोल का छिड़काव प्रभावी पाया गया है ।
4. करंज ( Karanj ) – करंज एक अति प्राचीन भारतीय वृक्ष है । इसकी खली का उपयोग भूमिगत कीटों के नियन्त्रण हेतु किया जाता है । करंज के तेल व पत्तियों के रस से धान के कई कीट नियन्त्रित किये जा सकते हैं ।
5. सीताफल ( Cilantro ) – सीताफल के तने व पत्तियों में कई तरह के एल्केलोइड पाये जाते हैं । इसका रस दीमक व अन्य कीटों को प्रभावी रूप से नियन्त्रित करता है । दाल वाली फसलों के बीजों को सीताफल उत्पाद से उपचारित कर भण्डारित करने पर अधिक समय तक कीटों से सुरक्षा मिलती है ।
6. लहसुन ( Garlic ) – लहसुन एक औषधीय फसल है । इसमें कीटनाशी व जीवाणुनाशी गुण पाये जाते हैं । लहसुन के 2 प्रतिशत घोल के छिड़काव से फसलों में चूसक कीटों का नियन्त्रण किया जा सकता है । इसी प्रकार लहसुन के घोल के छिड़काव से जीवाणु रोगों का भी नियन्त्रण होता है ।
3. कीट एवं व्याधियों का भौतिक नियन्त्रण ( Physical control of pests and diseases ) –
1. प्रकाश प्रपंच का उपयोग ( Use of lighting ) – सफेद ( दूधिया ) प्रकाश की ओर कीड़े आकर्षित होते हैं । इसलिए खेत में मर्करी लाईट अथवा बल्ब लगा दिया जाता है , जो फसल ऊँचाई से सिर्फ आधा फीट की ऊँचाई पर हो तथा उसके पास पानी का ड्रम अथवा मटका रख दिया जाता है । रात में कीड़े प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं एवं पानी में गिर जाते हैं । यह प्रकाश रात्रि को सिर्फ 7 बजे से 10 बजे तक ही करना चाहिये । इसके बाद मित्र कीट उड़ते है । अतः प्रकाश रहने पर उनके मरने की सम्भावना रहती है ।
2. फैरोमेन ट्रेप का उपयोग ( Use of pheromone traps ) – फैरोमेन ट्रेप कार्बनिक रसायन ( गंध ) प्रपंच है । इसमें उपलब्ध रसायन नर पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये गंध वातावरण में छोड़ता है । गंध से आकर्षित नर पंतगे ट्रेप में आकर फंस जाते हैं । नर पतंगो के नियन्त्रण के लिए प्रति हेक्टेयर 5-7 ट्रेप लगाना आवश्यक होता है । ट्रेप का ल्यूर 15 दिन में बदलते रहना चाहिए ताकि पतंगे नियमित रूप से आकर्षित होते रहें ।
4. कीट एवं व्याधि नियन्त्रण में गौ मूत्र का उपयोग ( Use of cow urine in pest and disease control ) –
गौ मूत्र को वेदों में अमृत तुल्य बताया गया है यह माना जाता है कि गौ मूत्र जितना पुराना उतना उपयोगी होता है । गौ मूत्र का उपयोग शरीर एवं दिमाग को परिष्कृत करने , रोग निवारक , बायोपेस्टीसाइड पौध वृद्धि कारक तथा मृदा गुणवत्ता पोषक के रूप में किया जाता है । गौ मूत्र के विभिन्न गुणों पर अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर कई पेटेन्ट जारी किए जा चुके हैं ।
प्राचीन काल से ही गौ मूत्र को कृषि तथा मानवजीवन में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । गौ मूत्र में आयरन , कैल्शियम , फॉस्फोरस , पोटाश , सोडियम , कॉपर , कार्बोनिक अम्ल व लेक्टोज पाया जाता है । गौ मूत्र से बनी दवाओं का प्रयोग मनुष्यों की विभिन्न बीमारियों के इलाज में भी किया जाता है । गौ मूत्र को संक्रमण दूर करने वाला माना गया है । अनुसंधान द्वारा यह पाया गया है कि गौ मूत्र में कीटनाशी का गुण होता है जिससे पौधे स्वस्थ व निरोगी रहते हैं ।
गौ मूत्र में लगभग 95 प्रतिशत पानी , 2.5 प्रतिशत यूरिया तथा 2.5 पोषक तत्व , लवण , हारमोन्स तथा एन्जाइम पाये जाते हैं । इसमें कॉपर , चांदी तथा सोने के कणों के अलावा एस्ट्रोजन , कोर्टिकोस्टेरॉइड तथा कीटोस्टेरॉइड भी पाये जाते है । गौ मूत्र के 5 से 15 प्रतिशत सान्द्रता के घोल का सीधा छिड़काव तथा अन्य पौधों के सत जैसे – तुलसी , आम , धतूरा , आदि के साथ मिलाकर इसका प्रयोग फसलों में कवकनाशी , जीवाणुनाशी तथा कीटनाशी के रूप में किया जाता है ।