खपरा भृंग ( Khapra Beetle )
वैज्ञानिक नाम – ट्रोगोडर्मा ग्रेनेरियम ( Trogoderma granarium )
गण : कोलिओप्टेरा
कुल : डरमेस्टिडी
खपरा भृंग कीट का उत्पति स्थल / आदि स्थल भारत ही हैं परंतु यह संसार के उन सभी देशों में प्रचुरता में मिलता हैं जहाँ तापक्रम 32 से 44 डिग्री से रहता हैं । यह भारत , अफ्रीका , म्यांमार , पाकिस्तान , चीन आदि देशों में प्रमुखता से मिलता हैं । भारत में यह लगभग सभी प्रदेशों में मिलता हैं ।
लक्षण ( Symptoms ) –
• खपरा भृंग कीट की पूर्ण विकसित भृंगक ( Grub ) कत्थई रंग का तथा लम्बे कड़े बालों से युक्त लगभग 4.0 मि.मी. लम्बा होता हैं ।
• प्रौढ़ भृंग छोटा , गहरे कत्थई रंग का लगभग 2-3 मि.मी. लम्बा होता हैं ।
• नर भृंग आकार में छोटा , मादा के आकार का लगभग आधा तथा अधिक गहरे रंग का होता हैं ।
क्षति एवं महत्त्व ( Damage and importance ) – गेहूँ , जौ , बाजरा , ज्वार , मक्का , धान , चना , पोस्त दालें , पिस्ता तथा अन्य सूखे फल आदि को यह कीट क्षति पहुॅचाता हैं । क्षति केवल भृंगक द्वारा ही होती हैं । इसके द्वारा सर्वाधिक क्षति जुलाई से अक्टूबर तक होती हैं , जब मौसम गर्म व नम रहता हैं । गिडार दानों में भ्रूण अथवा अन्य किसी कमजोर भाग को काटकर प्रवेश कर जाते हैं तथा भ्रूण वाला पूरा भाग खा जाते हैं । भ्रूण वाला पूरा भाग खा जाने से बीज के उगने की क्षमता नष्ट हो जाती हैं तथा इसकी पौष्टिकता में भी कमी आ जाती हैं । इसका आक्रमण अनाज की लगभग 50 से.मी. ऊपरी सतह तक ही सीमित रहता हैं ।
जीवन चक्र ( Life Cycle ) – निर्गमन के 2-3 दिन बाद मादा मैथुन क्रिया करती हैं तथा इसके 1 से 3 दिन बाद अण्ड़े देना आरम्भ कर देती हैं । अण्डे दानों के उपर अलग – अलग अथवा 2 से 5 के झुण्ड में दिये जाते हैं । एक मादा अपने जीवन काल में 120 से 150 अण्डे देती हैं । अण्डों का उष्मायन काल गर्मी में 3-5 दिन तथा सर्दियों में 6 – 10 दिन का होता हैं । नर डिम्भक 20-30 दिन तथा मादा 20 – 40 दिन में विकसित होती हैं । दानों के बीच ग्रब के अन्तिम निर्मोक में कोशित बनता हैं । कोशित काल 4-6 दिन का होता हैं । इसकी एक वर्ष में 4-5 पीढियाँ होती हैं ।
प्रबन्धन ( Management ) –
सामान्य प्रबन्धन –
• गोदामों की अच्छी सफाई व स्वच्छ वायु के आवागमन पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए ।
• गोदामों की दीवारों , फर्श एवं छत में मौजूद समस्त दरारों , गड्ढ़ों एवं छिद्रों को सीमेन्ट भरकर साफ कर देना चाहिए ताकि कीट की कोई भी अवस्था इनमें छिपकर न रह सकें ।
• अनाज को खलिहानों से लाकर अच्छी तरह साफ कर तेज धूप में सुखा लेना चाहिए ताकि उसमें नमी की मात्रा 8 – 10 प्रतिशत ज्यादा नहीं रहे । नमी की इस प्रतिशत मात्रा पर कीट का प्रकोप कम होता हैं । हालांकि यह कीट 2.5 प्रतिशत नमी की मात्रा में भी नुकसान कर सकता हैं ।
• अनाज से भी बोरियों को लकड़ी के पाटों पर तथा दीवारों से 50 से.मी. की दूरी छोड़कर रखा जाना चाहिए ।
• अनाज को नीम की निम्बोली के चूर्ण के साथ 100 : 1 के अनुपात में मिलाकर भण्डारित करने से कीट का प्रकोप कम होता हैं ।
रासायनिक प्रबन्धन –
• उपर्युक्त सावधानियाँ रखने के पश्चात् भी भण्डारणों में मौजूद कीटों के नुकसान को ई.डी.सी.टी . मिश्रण ( इथिलीन डाई ब्रोमाइड कार्बन टेट्रा क्लोराइड ) 30-40 कि.ग्रा. प्रति 100 घन मीटर के हिसाब से या मिथाईल ब्रोमाइड 3.5 कि.ग्रा. प्रति 100 घन मीटर या इथिलीन डाई ब्रोमाइड ( ई.डी.बी. ) 3 मि.ली. प्रति क्विंटल अनाज की दर से प्रयोग कर रोका जा सकता हैं । इनका इस्तेमाल पीसे खाद्यान्नों पर नहीं किया जाना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त भण्डारण में दाल भृंग ( Callosobruchus chinensis ) , चावल की घुन ( Sitophilus oryzae ) , लाल सुरही ( Rhyzopertha dominica ) , लाल सुरसाली ( Tribolium castaneum ) इत्यादि कीट मुख्यतः नुकसान पहुँचाते हैं ।