जैविक खेती : परिभाषा, महत्त्व, अवधारणा, सिद्धान्त, उद्देश्य, उपयोगिता

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जैविक खेती ( Organic Farming )

 

परिभाषा : ” जैविक खेती एक उत्पादन प्रणाली है , जो कि मृदा , पारिस्थितिकी परितंत्रों और लोगों के स्वास्थ्य को बनाए रखती है । यह प्रतिकूल प्रभावों वाले आदानों के उपयोग की बजाय , पारिस्थितिक प्रक्रियाओं , जैव विविधता और स्थनीय परिस्थितियों के अनुकूलित चक्र पर निर्भर करती है । “ ( अंतर्राष्ट्रीय जैविक कृषि गतिविधि संघ ( आई.एफ.ओ.ए. एम . ) के अनुसार )

” जैविक के खेती फार्म की रचना एवं प्रबंधन कर एक पारिस्थितिकी तंत्र का निमार्ण करने की पद्धति है जिससे संश्लेषित बाह्य आदानों जैसे कि रासायनिक उर्वरकों एवं पेस्टीसाइड्स के उपयोग से बिना टिकाऊ उत्पादकता प्राप्त की जा सके । “ ( राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम ( NPOF ) के अनुसार )

 

अवधारणा ( Concept ) : मूल रूप से ” जैविक खेती ” भारतीय पद्धति है । जैविक खेती भारतवर्ष की सनातन प्राचीनतम कृषि उत्पादन पद्धति रही है । ऋषि पाराशर ने बताया – ” जंतुनाम जीवनम् कृषि ” अर्थात् कृषि का आधार भूमि में रहने वाले सूक्ष्म जीवाणु हैं । जैविक खेती जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है जीवों के सहारे की जाने वाली जीवन्त खेती है । आधुनिक जैविक खेती का सिद्धान्त सर्वप्रथम सर अल्बर्ट हावर्ड ने 1930 के दशक में इंग्लैण्ड में प्रतिपादित किया । इसे तीस व चालीस के दशक में पौध उद्योग संस्थान ( आई.पी.आई. ) के सर अल्बर्ट हावर्ड के कार्यदल ने आधुनिक आयाम दिया । उन्होंने जैविक कम्पोस्ट आधारित कृषि को अपनाने पर बल दिया ।

‘ आर्गेनिक फार्मिंग ‘ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लार्ड वाल्टर नार्थबोर्न ने 1940 में अपनी पुस्तक ‘ लुक दु दी लेण्ड ‘ में किया था । मुख्यतया जैविक खेती की शुरूआत 1930 के दशक में यूरोप से हुई । 1924 में आस्ट्रिया के दार्शनिक डॉ . रूडोल्फ स्टेनर ने एक वैकल्पिक कृषि के रूप में ‘ बायोडाइनेमिक खेती ‘ की विचारधारा का प्रतिपादन किया जो बाद में विश्व के कई देशों में व्यावसायिक रूप से अपनाई जाने लगी । लगभग इसी दौरान स्वीटजरलैण्ड और जर्मनी में डॉ . हंस मुलर ने ऐसी कृषि पद्धति का प्रतिपादन किया जिसमें फार्म को संसाधनों एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने वाली कृषि पद्धति पर जोर दिया गया ।

 

जैविक खेती के सिद्धान्त –

अंतराष्ट्रीय जैविक कृषि गतिविधि संघ ( इंटरनेशनल फैडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट्स ) के अनुसार जैविक खेती के चार सिद्धांत हैं –

1. स्वास्थ्य का सिद्धांत : मृदा , पादप ( फसल ) , पशु और मानव स्वास्थ्य को लगातार बनाए रखना एवं साथ ही उसमें वृद्धि करना । यदि मृदा का स्वास्थ्य अच्छा होगा तभी उसमें उगने वाली फसलों का स्वास्थ्य भी अच्छा होगा । इसी प्रकार यदि पशु अथवा मानव इन स्वस्थ पादपों ( फसलों ) का सेवन करेंगे तो उनका स्वास्थ्य भी अच्छा होगा ।

2. पारिस्थितिकी का सिद्धांत : जैविक खेती पारिस्थितिकी एवं सजीव पद्धतियों ओर चकों पर आधारित होनी चाहिए । जैविक खेती इन पारिस्थितिक चक्रों के साथ कार्य करें और साथ ही इनकी निरन्तरता बनाए रखने में भी सहायक होनी चाहिए ।

3. निष्पक्षता अथवा न्याय संगतता का सिद्धांत : जैविक खेती पर्यावरण में उपस्थित सभी जीवों के पारस्परिक संबंधों को सुदृढ़ करने पर विशेष बल देती है , जिससे कि किसी भी जीव के साथ अन्याय न हो और साथ ही उसका अत्यधिक दोहन भी न हो ।

4. सेवा का सिद्धांत : जैविक खेती को एक जिम्मेदारी के साथ किया जाना चाहिए , जिससे कि वर्तमान जनसंख्या और आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य हितों की अवहेलना न हो और साथ ही पर्यावरण स्वास्थ्य भी कोई बुरा प्रभाव न पड़े ।

 

जैविक खेती के उद्देश्य –

1. जीवन धारण करने योग्य कृषि प्रणाली विकसित करना जिससे भविष्य में आवश्यक मात्रा में पोषक खाद्य उत्पादन हो सके ।

2. आत्मनिर्भर कृषि प्रणाली विकसित करना जो वास्तव में हमारे अपने संसाधनों में उपलब्ध सस्ते संसाधनों पर आधारित हों ।

3. रासायनिक खेती के विकल्प के रूप में टिकाऊ खेती का विकास तथा जल स्रोतों एवं मिट्टी को प्रदूषण मुक्त रख स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण करना ।

4. उत्पादन लागत में कमी लाकर टिकाऊ खेती के तरीकों के विकास द्वारा खेती एवं कृषक को स्वावलम्बी बनाना ।

 

जैविक खेती का महत्त्व –

जैविक कृषि न केवल भूमि के स्वास्थ्य , बल्कि मानव – मात्र के स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी पद्वति है । इसकी बहुपक्षीय उपयोगिताओं को निम्नानुसार देखा जा सकता है –

1. भूमि की उर्वराशक्ति में टिकाऊपन : जैविक पद्धति में प्रयुक्त की जाने वाली विभिन्न खादें तथा तकनीकें न केवल भूमि को पोषक तत्व उपलब्ध करवाती हैं अपितु भूमि की संरचना तथा जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करती हैं । इससे भूमि के स्वास्थ्य तथा गुणवत्ता में सुधार होता है ।

2. पशुधन में बढ़ोतरी : पशुधन का महत्व बढ़ते मशीनीकरण एवं बदलती जीवनशैली से कम होता जा रहा है । बिना पशुधन के कृषि में टिकाऊपन बनाए रखना संभव नहीं है और न ही लाभकारी है । जैव विविधता की दृष्टि से भी यह एक अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता । इसके विपरित जैविक पद्धति में पशुधन को अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । यह माना गया है कि एक एकड़ क्षेत्र में जैविक खेती के लिए एक या इससे अधिक पशुधन उपलब्ध हो तो बेहतर है ।

3. बाह्य आदानों की लागत में कमी : जैविक पद्धति में किसान अधिकतर इनपुट जैसे – खादें तथा कीटनाशक अपने स्थानीय स्रोतों से ही बना लेता है जिसमें विभिन्न कृषि आदानों पर होने वाली लागत में कमी आती है । यद्यपि श्रम लागत में बढ़ोतरी होती है ।

4. वातावरण की शुद्धता : परम्परागत पद्धति में प्रयुक्त किए जाने वाले हानिकारक रसायन न केवल पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं बल्कि ये कृषि हेतु लाभदायक जीवों को भी नष्ट कर देते हैं । जैविक पद्धति में इनका संतुलन बना रहता है तथा इनकी संख्या में भी बढ़ोतरी होती है ।

5. मानव स्वास्थ्य के लिए लाभकारी : परम्परागत कृषि पद्धति में खेती हेतु प्रयुक्त किए जा रहे रसायनों के कारण वायु तथा भूमि प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच गए है । यही नहीं इनके प्रयोग से उत्पादित होने वाले अनाज , सब्जियों तथा फलों में भी विभिन्न रसायनों के अवशेष प्राप्त हो रहे हैं । जो मानव स्वास्थ्य के लिये ” धीमा जहर ” साबित हो रहे हैं । जैविक पद्धति अपनाकर इस बिना रसायन युक्त खाद्य प्राप्त कर सकते हैं तथा इनके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली बीमारियों से भी रक्षा होगी ।

6. कम पानी की आवश्यकता : जीवांश खादों के प्रयोग से भूमि को सिंचाई की अपेक्षाकृत कम आवश्यकता पड़ती है क्योंकि ये खादें भूमि की जल धारण क्षमता को बढ़ाती हैं । इस प्रकार सिंचाई की अपेक्षाकृत कम व्यवस्था होने पर भी किसान अच्छी फसल ले सकते है ।

7. कृषि उत्पाद की गुणवत्ता : अधिकांशत लोग यह जानते है कि वर्तमान में किसान दो प्रकार की पैदावार लेते हैं : – टिकाऊ तथा बिकाऊ । इनमें से टिकाऊ प्रकार की फसल का उपयोग वे स्वयं के लिये करते हैं जबकि बिकाऊ प्रकार की फसल वे बाजार के उद्देश्य से तैयार करते हैं ।

8. मृदा में आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति : जैविक खादों के उपयोग से फसल को सभी 17 आवश्यक तत्वों की पूर्ति एक साथ हो जाती है । जहाँ अधिकांश रासायनिक उर्वरक केवल नाइट्रोजन , फॉस्फोरस तथा पोटाश पर ही केन्द्रित रहते हैं ।

9. जैविक उत्पाद का लाभकारी मूल्य : वर्तमान में अधिकांश उपभोक्ता रासायनिक विधियों द्वारा पोषित एवं सुरक्षित खाद्यानों तथा उत्पादों के सेवन से होने वाली हानियों के प्रति सचेत हो गए हैं , फलतः ” आर्गेनिक उत्पादों के नाम से अलग से दुकानें / बाजारें लगने लगी हैं जिनके लिए जागरूक उपभोक्ता 10 से 30 प्रतिशत तक अधिक मूल्य देने के लिये तैयार रहते हैं । इस प्रकार बाजार को ध्यान रखते हुए फसल का चुनाव कर जैविक पद्धति से खेती करने के अवसर का लाभ लिया जा सकता है ।

 

भारत में जैविक खेती की उपयोगिता : – भारत में जैविक कृषि के प्रोत्साहन के लिए भारत सरकार तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का विशेष जोर है जिसके प्रमुख कारणों को नीचे रेखांकित किया गया है ।

1. हरित क्रांति की सूत्रधार फसलों गेहूँ – धान के उच्च उत्पादन स्तर के लिए अपनाई गई रसायनिक एवं सघन पद्धति के दुष्प्रभाव अब खुलकर सामने आ रहे हैं । यह उत्पादन स्तर भूमिगत जल संसाधनों के अत्यधिक इस्तेमाल व भूमि के बहुत ज्यादा दोहन की कीमत पर प्राप्त किया गया । इसके परिणामस्वरूप भूमिगत जलस्तर तेजी से गिरता जा रहा है और भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है । इन फसलों में खरपतवार , कीट और बीमारियों में वृद्धि के साथ – साथ इनमें रसायन रोधी क्षमता विकसित हो रही हैं । इन सबके कारण किसान को उत्पादन स्तर बनाए रखने के लिए पहले से कहीं ज्यादा व्यय करना पड़ता है जो सीधे तौर पर फसल के लागत मूल्य को बढ़ाने के साथ – साथ मुनाफा कम करता जा रहा है ।

2. गेहूँ- धान के लगातार उत्पादन से भूमि और पौधों में कुछ विशेष तत्वों जैसे सल्फर , लोहा , ताँबा , फॉस्फोरस , मैंगनीज आदि की कमी होने लगी है जिसके फलस्वरूप पशुओं में उत्पादन और प्रजनन क्षमता प्रभावित हो रही है । इसका प्रभाव पशुपालकों को आर्थिक नुकसान के रूप में सहन करना पड़ रहा ।

 

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