जैव उर्वरक का वर्गीकरण – नाइट्रोजन स्थिरीकरण, फॉस्फोरस विलेयक, प्रयोग

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जैव उर्वरक का वर्गीकरण ( Classification of Biofertilizers )

 

[1] नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु ( Nitrogen Fixing Bacteria ) – 

( अ ) राइजोबियम ( Rhizobium ) –

यह एक जीवाणु है जो दलहनी फसलों की जड़ों पर पाई जाने वाली ग्रन्थियों में रहता है । ये जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन का अवशोषण कर उसका स्थिरीकरण करते हैं जो अन्ततः पौधों को उपलब्ध होती है । राइजोबियम कल्चर सबसे अधिक उपयोग होने वाला जैव उर्वरक है । यह केवल दलहनी फसलों में ही प्रयोग किया जाता है । राइजोबियम की विशेष प्रजाति ही दलहनी फसल की एक विशेष प्रजाति के साथ जड़ ग्रन्थियाँ बनाते है जिसे कॉस इनआकूलेशन ( Cross inoculation group ) समूह कहा जाता है जो कि फेड एवं साथियों द्वारा 1932 में प्रतिपादित किया गया है । राइजोबिया तथा दलहन फसलों की आपस में जड़ ग्रन्थियाँ बनाने की विशेषता के आधार पर तीन जीवाणु वंशों यथा राइजोबियम , ब्राडिराइजोबियम एवं एजोराइजोबियम के कॉस इनआकूलेशन समूह का वर्गीकरण दिया गया है ।

1. एजोटोबेक्टर – यह जीवाणु स्वतंत्र रूप से मृदा में रहते हैं । ये बैक्टीरिया ग्राम नेगेटिव है । ये पौधों की जड़ क्षेत्र के समीप रहते हुए वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण कर उसका स्थिरीकरण करते हैं । इस जैव उर्वरक का प्रयोग गैर दलहनी फसलों जैसे गेहूँ , जौ , मक्का , सब्जियों आदि में किया जाता है ।

2. एजोस्पाइरिलम – यह एक वायु प्रिय जीवाणु है जो मृदा में स्वतंत्र रहकर वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध करवाते हैं । इस जैव उर्वरक का उपयोग चावल , ज्वार , गन्ना , बाजरा , सब्जियों आदि में किया जाता है ।

 

नाइट्रोजनधारी जैव उर्वरकों की उपयोग विधि ( Method of application of nitrogenous biofertilizers ) – नीलरहित शैवाल तथा एजोला के अलावा सभी जैव उर्वरकों का निम्न प्रकार प्रयोग किया जाता है ।

1. बीज उपचार ( Seed treatment ) – राइजोबियम , एजोटोबैक्टर , एजोस्पाइरिलम एवं फास्फेट विलयकारी जैव उर्वरकों ( पी.एस.बी. कल्चर ) के प्रयोग के लिए बीज उपचार विधि ही सुविधाजनक , सस्ती , उत्तम एवं अधिक प्रचलन में है । सामान्यतः 10 से 12 किग्रा . बीज को उपचारित करने के लिए एक पैकेट ( 200 ग्राम ) जैव उर्वरक पर्याप्त होता है ।

बीज उपचार निम्न प्रकार से करें –

• आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ को घोलकर उबालें । घोल ठण्डा हो जाने पर 200 ग्राम जीवाणु खाद को इसमें मिलावें ।

• इसके बाद घोल को 10-12 किलो बीज के ढेर पर धीरे धीरे डालकर हाथों से मिलाएं जिससे कि जैव उर्वरक अच्छी तरह और समान रूप से बीजों पर चिपक जाये ।

• इस प्रकार तैयार उपचारित बीज को छाया में सुखाकर तुरन्त बुआई कर दें ।

 

2. पौध / जड़ उपचार ( Plant / Root Treatment ) – रोपाई की जाने वाली फसलों जैसे टमाटर , गोभी , बैगन , मिर्च , प्याज आदि के लिए यह विधि सर्वोत्तम है । इस विधि में जैव उर्वरकों की मात्रा बीज उपचार की अपेक्षा कुछ ज्यादा लगती है परन्तु जड़ उपचार विधि द्वारा अधिक संख्या में जीवाणु पौध जड़ों पर चिपक कर जड़ों के पास पहुँच जाते हैं जिससे उपचारित पौध रोपाई पर पौध वृद्धि अच्छी होती है ।

पौध / जड़ उपचार निम्न प्रकार से करें –

• जीवाणु खाद का जड़ोपचार द्वारा प्रयोग रोपाई वाली फसलों में करते हैं ।

• इसके लिए 4 किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25 लीटर पानी में घोल बनायें ।

• एक हैक्टर के लिए पर्याप्त पौध की जड़ों को 20-25 मिनट तक उपरोक्त घोल में डुबोकर रखें ।

• इसके बाद उपचारित पौध को छाया में रखें तथा यथाशीघ्र रोपाई कर दें ।

• बर्तन में बचे हुए घोल में मिट्टी या राख या कम्पोस्ट खाद अच्छी तरह से मिलाकर खेत में मिट्टी मिला दें , बाहर न फेकें ।

 

3. मृदा उपचार ( Soil treatment ) – इस विधि द्वारा एजोटोबैक्टर , एजोस्पाइरिलम एवं फास्फेट विलयकारी जैव उर्वरकों ( पी.एस.बी. कल्चर ) का प्रयोग सभी खाद्यान्नों की फसलों , तिलहन फसलों , सब्जी फसलों , फूलों आदि में किया जा सकता हैं ।

मृदा उपचार निम्न प्रकार से करें –

• मृदा उपचार के लिए 50 किलोग्राम मिट्टी या कम्पोस्ट खाद में 5 किलोग्राम जीवाणु खाद को अच्छी तरह मिलाएं ।

• इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुआई के समय या बुआई से 24 घण्टे पहले समान रूप से छिड़के और बुआई कर दें ।

 

4. कंद उपचार ( Tuber treatment ) – 1 किग्रा . कल्चर का 40-50 लीटर पानी में घोल तैयार करते हैं । घोल में आलू , लहसुन , गन्ना आदि के टुकड़ों को 10 मिनट तक डुबोकर बुआई करते हैं ।

 

( ब ) नील हरित शैवाल ( Blue green algae ) –

इसे सायनोबैक्टिरिया भी कहते हैं । यह पानी की सतह पर पाई जाने वाली उपयोगी व लाभदायक काई है , जो नीले – हरे रंग की होती है । यह सूर्यप्रकाश में अपना भोजन स्वयं बनाकर , वायुमण्डल की नत्रजन का स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध कराती है लेकिन यहाँ यह जान लेना चाहिए कि सभी शैवाल नत्रजन का स्थिरीकरण करने में सक्षम नहीं होते । ऐसी नील हरित शैवाल जिनमें एक विशेष संरचना हिटरोसिस्ट पाई जाती है , नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने में सक्षम है । यह शैवाल 25-30 किग्रा . नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर यौगिकीकरण करती है । इसका उपयोग धान के खेतों में किया जाता है । इसकी कुछ मुख्य प्रजातियाँ है एनाबिना , नोस्टॉक , साइटोनिया , आसीलेटोरिया आदि ।

नील हरित शैवाल का उत्पादन ( Production of blue green algae ) – इसके उत्पादन के लिए एक गड्ढा बनाकर पॉलीथीन बिछा देते है या 6 ” x 3 ” x 9 ” आकार की गेल्वेनाइज्ड लोहे की चद्दर की ट्रे बनवा लेते हैं । 6 ” x 3 ” x 9 ” आकार के गड्ढे में पॉलिथीन बिछाने के बाद 10 किग्रा . भुरभुरी मिट्टी तथा 200 ग्राम सुपर फॉस्फेट डालकर 6 ” पानी भर देते है । जब मिट्टी पैंदे में बैठ जाये तो मृदा आधारित नील हरित शैवाल के कल्चर को 250 ग्राम लकड़ी के बुरादे के • साथ मिलाकर 100 ग्राम प्रति गड्ढे के हिसाब से उपचारित करते है । यदि गड्ढे में हरी काई दिखाई दे 0.05 प्रतिशत कॉपर सल्फेट के घोल का छिड़काव करना चाहिए । 10-15 दिनों के बाद गड्ढ़ों के ऊपर काई की एक मोटी परत कालीन की तरह पानी के ऊपर तैरने लगती है । इस काई को या तो एकत्रित कर लेते हैं या गड्ढों का पानी पूर्ण रूप से सूखने देते हैं और नील हरित काई को सूखी पपड़ी के रूप में एकत्र कर पॉलीथीन की थैलियों में भर लेते हैं ।

प्रयोग विधि ( Method of use ) – इसका उपयोग धान की रोपाई के 7 दिन बाद करते हैं तथा जिस खेत में इसका उपचार करते हैं उसमें पानी स्थिर एवं 8-10 सेमी , हमेशा भरा रहना चाहिए । खेत में 8-12 किग्रा . प्रति हेक्टेयर की दर से नील हरित शैवाल का छिड़काव करते है । कल्चर डालने के बाद 4-5 दिनों तक पानी स्थिर रहना चाहिए ।

 

( स ) एजोला ( Azolla ) –

एजोला पानी में तैरने वाली एक प्रकार की फर्न है जो इसकी पंखुड़ियों में उपस्थित नीली हरी काई ऐनाबिना के साथ सह जीवन द्वारा वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करती है । एजोला कल्चर के उपयोग से पता चला है कि इसमें 40 से 100 किलोग्राम नाइट्रोजन / हेक्टेयर यौगिकीकृत हो सकती है । भारत में एजोला की पाठ्यक्रम / इकाई 3 प्रजाति एजोला पिन्नेटा पाई जाती है । लेकिन इसकी नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता कम होने के कारण धान की फसल में एजोला माइक्रोफिला तथा एजोला केरोलिनिआना का उपयोग किया जाता है । एजोला प्रतिदिन 1.0 – 1.5 किग्रा . प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन जमा करने की क्षमता रखता है । 20-25 दिन के भीतर इससे प्रति हेक्टेयर औसतन 20-40 किग्रा . नाइट्रोजन प्राप्त होती है ।

एजोला उत्पादन विधि ( Azolla Production Method ) – अच्छी तरह तैयार खेत में 5 मी. x 2 मी. आकार की क्यारियाँ बनाकर उसमें 5-10 सेमी . पानी भर देते हैं । इसके बाद 0.5-1.5 टन प्रति हेक्टेयर ( 50-100 ग्राम प्रति वर्ग मीटर ) के हिसाब से ताजा स्वस्थ एजोला क्यारियों में डालते हैं । 15-20 दिन बाद एजोला की एक मोटी तह बन जाने पर इसका 1 भाग बांस की सहायता से निकाल लेते है और शेष भाग को फिर बढ़ने देते हैं । 100 वर्ग मीटर क्षेत्र से प्रति सप्ताह 10 किग्रा . एजोला प्राप्त हो सकता है । एजोला की अच्छी बढ़वार हेतु प्रति सप्ताह 5-8 किग्रा . सुपर फॉस्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से डालते हैं ।

प्रयोग विधि ( Method of use ) – एजोला का उपयोग धान के खेत में रोपाई के पहले हरी खाद के रूप में या रोपाई के बाद धान के साथ इसका संवर्धन किया जाता है । प्रथम विधि में इसका प्रयोग केवल उन्हीं क्षेत्रों में सम्भव है जहाँ रोपाई के पहले पर्याप्त पानी उपलब्ध हो । खेत को तैयार कर छोटी – छोटी क्यारियों में बाँट कर 5-10 सेमी . भर देते हैं । क्यारियों में 1.0-2.0 टन प्रति हेक्टेयर की दर से एजोला डाल देते हैं । 10 किग्रा . सुपर फॉस्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से तीन बराबर भागों में खेत में डालें । 15-20 दिन बाद एजोला की मोटी तह बन जाने पर खेत से पानी निकाल कर हल चलाकर एजोला को मिट्टी में मिला दें । बाद में धान की रोपाई कर दें ।

धान के साथ एजोला प्रयोग के लिए 0.5-1.0 टन एजोला प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के एक सप्ताह बाद खेत में डालें। 20-25 दिन बाद एजोला की मोटी तह बन जाती है । इसको मिट्टी में मिला दें । मिट्टी में नहीं मिलाने पर एजोला अपने आप सड़ जाता है और फसल को पर्याप्त लाभ देता हैं ।

 

[2] फॉस्फोरस विलेयक जैव उर्वरक ( Phosphorus Solvent Biofertilizer ) –

फॉस्फोरस विलेयक जैव उर्वरक सूक्ष्म जीवाणुओं का एक ऐसा कल्चर है जिसमें अविलेय फॉस्फोरस को विलेय बनाने की क्षमता पायी जाती है । वैसे तो बहुत से जीवाणु , एक्टीनोमाइसीट्स एवं कवक में फॉस्फोरस की विलेयता बढ़ाने के गुण पाये जाते हैं लेकिन जैव उर्वरक निर्माण के लिए कुछ गिने चुने वंश के सूक्ष्म जीवाणु ही औद्योगिक स्तर पर प्रयोग में लाये जाते हैं । इसके लिए 4 किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25 लीटर पानी में घोल बनायें ।

प्रयोग विधि ( Method of use ) – पी.एस.बी. / पी.एस. एम. कल्चर का उपयोग भी एजोटोबेक्टर या राइजोबियम की तरह ही बीज , भूमि उपचार व पौध उपचार के रूप में किया जाता है ।

 

माइकोराइजा ( Mycorrhiza ) –

यह एक विशेष प्रकार का कवक होता है जो बहुशाखीय लम्बे तंतुओं से बना होता है । पौधों तथा दाल फसलों की जड़ों में इसके तंतु प्रवेश कर जाते हैं । तंतुओं का वह भाग जो जड़ों के बाहर रहता है मिट्टी से लगातार फॉस्फोरस अवशोषित करता रहता है । यह फॉस्फोरस तंतुओं के अन्दर गति कर पौधों की जड़ क्षेत्र के अन्दर पहुँच जाता है । कवक व पौधों की जड़ों के बीच सह- जीविता होती है जिससे कवक मृदा से जल एवं खनिज लवणों को अवशोषित कर पौधों को प्रदान करता है तथा पौधे कवक को कार्बनिक भोज्य पदार्थ प्रदान करते हैं ।

उदाहरण – अरबूस्कूलर माइकोराइजा का उपयोग मक्का में किया जाता है ।

 

[3] मिश्रित जैव उर्वरक ( Compound Biofertilizers ) –

सामान्यतः नत्रजन स्थिरीकरण या स्फुर घोलक जैव उर्वरकों का अलग – अलग उपयोग अनुशंसित है परन्तु प्रयोगों द्वारा यह पाया गया है कि मिश्रित जैव उर्वरक जिसमें नत्रजन स्थिरीकारक स्फुर घोलक , पौध वृद्विबढ़वार में सहायक जड़ीय जीवाणु ( पी.जी.पी.आर ) एवं वेम ( VAM ) फफूंद के संयुक्त मिश्रण का उपयोग करने से गैर दलहनी , दलहनी एवं तिलहन फसलों की बढ़वार में अच्छी वृद्धिहोती है । नत्रजन एवं स्फुर जनित रासायनिक उर्वरकों की खपत में लगभग 10-25 प्रतिशत की बचत होती है एवं इनकों कार्बनिक पदार्थों के साथ उपयोग किया जाये तो फसलोत्पादन पर और अच्छा प्रभाव पड़ता है । इस जैव उर्वरकों का प्रभावी एवं धनात्मक योगदान विभिन्न फसलों जैसे मिर्च , कपास , उड़द , सोयाबीन , अरहर आदि पर भी देखने को मिला है ।

 

[4] तरल जैव उर्वरक ( Liquid Biofertilizer ) –

आजकल ठोस वाहक के स्थान पर तरल वाहक का उपयोग बढ़ रहा है । तरल जैव उर्वरक या लिक्विड बायो फर्टिलाइजर ऐसा तरल ससपेंशन हैं जिनमें खेती के लिहाज से उपयोगी जीवाणु होते है । मृदा उर्वरता के प्रबंधन और पोषक तत्वों की निरंतर उपलब्धता बनाये रखने हेतु तरल जैव उर्वरकों जैसे – राइजोबियम , एजोटोबैक्टर , फास्फोरस , पोटाश एवं जिंक घोलक जीवाणु आदि अत्यंत उपयोगी आदान है । स्थानीय जलवायु के आधार पर कुछ ऐसे सूक्ष्म जीवों द्वारा तरल उर्वरक तैयार किये जा रहे हैं , जो अलग – अलग स्थान और जलवायु में कारगर सिद्ध हुए हैं । अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि जहाँ रासायनिक खादों का उपयोग नहीं होता है वहाँ ये जीवाणु आदान अधिक प्रभावी हैं । इस जैव उर्वरक का उपयोग पर्यावरण के अनुकूल है और रासायनिक उर्वरक का उपयोग सीधे 15 से 40 प्रतिशत कम कर देता है । इसे बगैर किसी खास इंतजाम के लंबे समय तक रखा जा सकता है तथा ठोस वाहक जैव उर्वरकों की तुलना में इसकी संग्रहण जीवन अवधि एक से दो वर्ष तक हो सकती है । इस लिक्विड बायो फर्टिलाइजर के उपयोग से भारतीय किसानों को जैविक फसल उगाने में सहायता मिलेगी और वे अंतरराष्ट्रीय बाजार की प्रतिस्पर्धा में टिक सकेंगे ।

तरल जैव – उर्वरक की उपयोग विधियाँ ( Application Methods of Liquid Bio-fertilizer ) –

1. बीज उपचार ( Seed treatment ) : 1 किलो बीज को 5 मिली . तरल जैव उर्वरक के साथ मिलाते हैं , और बीजों को बुआई के पहले उपचारित कर छाया में सूखने के लिए रख दे ।

2. जड़ / पौध उपचार ( Root / Plant Treatment ) : 50 मिली . तरल जैव उर्वरक को 1 ली . पानी में मिलाते हैं , और जड़ो को 15 से 20 मिनट घोल में डुबोये रखने के बाद बुआई करें ।

3. मिट्टी उपचार ( Soil treatment ) : मुख्य क्षेत्र और पौधघर में एक एकड़ में 250 मिली . जैव – उर्वरक को 100 किलो मिट्टी के साथ मिलाते हैं एवं खेत में मिला देते हैं ।

4. बूंद – बूंद सिंचाई ( Drop by Drop irrigation ) : बूंद – बूंद एवं फव्वारा सिंचाई विधि से तरल जैव उर्वरक प्रयोग करने के लिए एक हेक्टेयर में 1 ली . जैव – उर्वरक को डालते हैं ।

 

तरल जैव – उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियाँ ( Precautions in the use of liquid bio-fertilizers ) –

• जैव उर्वरकों को नामांकित फसल के लिये ही उपयोग में लेना चाहिये ।

• जैव उर्वरकों को उपयोग से पहले बोतल को अच्छे से हिलाकर बीजोपचार करें ।

• जैव – उर्वरकों को ठण्डी जगह पर रखें और धूप एवं गर्मी से बचाये ।

• जैव उर्वरकों और रासायनिक उर्वरकों को एक साथ मिलाकर प्रयोग ना करें ।

• जैव उर्वरकों को उसको अंतिम तिथि से पहले ही उपयोग में ले ।

• बीजों को पहले फफूंदनाशक फिर कीटनाशक तथा अंत में जैव – उर्वरक से उपचारित करें ।

 

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