टिड्डा / फड़का ( Locust & Grasshopper )
वैज्ञानिक नाम – सिस्टोसर्का ग्रीगैरिया ( Schistocerca gregaria )
गण : ओर्थ्रोप्टेरा
कुल : एकरिडिडी
टिड्डा / फड़का सर्वभक्षी कीटों की श्रेणी में आता हैं तथा इसे अन्तर्राष्ट्रीय शत्रु के रूप में जाना जाता हैं । विश्व में टिड्डा / फड़कों की लगभग 5000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं , इनमें से केवल 9 प्रजातियों को टिड्डा की संज्ञा दी गई हैं ।
भारत में टिड्डी की में मुख्यतः तीन प्रजातियाँ पाई जाती हैं –
1. रेगिस्तानी टिड्डी ( Desert Locust ) – यह प्रजाति अत्यंत विनाशकारी है और रेगिस्तानी टिड्डी , सिस्टोसर्का ग्रीगैरिया ( Shistocerca gregaria Forskall ) के नाम से जानी जाती हैं । यह प्रजाति विश्व के 70 विभिन्न देशों में लगभग 3 करोड़ किलोमीटर क्षेत्र में पायी जाती हैं ।
2. प्रवासिनी टिड्डी ( Migratory Locust ) – यह प्रजाति , लोकस्टा माइग्रेटोरिया ( Locusta migratoria L. ) राजस्थान और गुजरात में पाई जाती हैं । यह वर्षा में दो बार प्रजनन करती हैं तथा इसकी अनेक पीढ़ियाँ होती हैं ।
3. बम्बईया टिड्डी ( Bombay Locust ) – भारतवर्ष में टिड्डी की यह प्रजाति पटंगा सक्सिंक्टा ( Patanga succincta L. ) गुजरात से तमिलनाडु के मध्य सक्रिय रहती है । इसके वयस्क डेजर्ट लोकस्ट से छोटे होते हैं । इसकी वर्ष में एक पीढ़ी होती हैं ।
प्रावस्था सिद्धान्त ( Phase theory ) – रेगिस्तानी टिड्डी मुख्यतः दो प्रावस्थाओं ( Phases ) में पायी जाती हैं –
1. एकल प्रावस्था ( Solitary phase ) – इस प्रावस्था में टिड्डी की संख्या विरल होती हैं । एकल प्रावस्था में अर्भक हरे रंग के एवं वयस्क धूसर रंग के होते हैं और एक साधारण फड़के की तरह व्यवहार करते हैं ।
2. यूथी प्रावस्था ( Gregarious phase ) – इस अवस्था में टिड्डी के अर्भक / शिशु ( Nymph ) भारी संख्या में तथा समूह में पाये जाते हैं । यूथी प्रावस्था में अर्भक काले रंग के होते हैं तथा निश्चित पट्टियों में लम्बी दूरी तक गमन करते हैं । इस प्रावस्था के अपरिपक्व वयस्क गुलाबी रंग के होते हैं जो पूर्ण विकसित वयस्क में परिवर्तित होते ही पीले रंग के हो जाते हैं ।
पौषक पौधे ( Nutritious plants ) – खरीफ में बोई जानी वाली लगभग सभी फसलें जैसे बाजरा , मूँगफली , मिर्च , ग्वार , मूँग , सब्जियाँ , फल -वृक्षों की पौध आदि इससे प्रभावित होती हैं ।
क्षति एवं महत्त्व ( Damage and importance ) – टिड्डी के अर्भक और वयस्क दोनों की क्षतिकारक अवस्थाएँ हैं । यह आक , नीम , धतूरा , जामुन , शीशम और अंजीर को छोड़कर किसी भी वनस्पति को सम्पूर्ण रूप से खा जाते हैं । क्षति की मात्रा कीट की संख्या पर निर्भर करती है ।
जीवन चक्र ( Life Cycle ) – टिड्डी के लैंगिक रूप से परिपक्व वयस्क पीले रंग के होते हैं तथा मैथुन क्रिया के लिए तत्पर रहते हैं । मादाएँ अण्डे देने के लिए बलुई मिट्टी पसन्द करती हैं । अण्डे में भूमि में 10 से 15 से.मी. की गहराई में 50 से 150 तक समूह में देती हैं । एक मादा 500 तक अण्डे दे सकती हैं । अण्डे चावल के दाने के समान पीले रंग के 7 से 8 मि.मी. लम्बे तथा 1 मि.मी. मोटे 8 होते हैं । अण्डों का प्रस्फोटन काल ( Hatching period ) 10 से 40 दिन का होता हैं । अण्डों से कृमि आकार ( Vermiform ) के लट भूमि से बाहर आकर अर्भक में परिवर्तित होते हैं । ये अर्भक पाँच बार त्वचा निर्मोचन करके 3 से 10 सप्ताह में व्यस्क में बदल जाते हैं । पूर्ण विकसित वयस्क 10 से 15 दिन में लैंगिक रूप से परिपक्व होकर प्रजनन प्रारंभ कर देते हैं । टिड्डी वर्ष में दो बार ग्रीष्म और शीत ऋतु में अण्डें देती हैं ।
प्रबन्धन ( Management ) –
शस्य प्रबन्धन –
• रात्रि में तथा सूर्योदय से पूर्व एक जगह एकत्रित अर्भकों व वयस्कों को आग की लपट फैंकने वाले यन्त्र ( Flame thrower ) से जलाकर नष्ट किया जा सकता हैं ।
• फसलों में होने वाले नुकसान को 0.1 प्रतिशत नीम की निम्बोली के तेल का छिड़काव करके बचाया जा सकता हैं ।
जैविक प्रबन्धन-
• ट्रोक्सप्रोसेरस ( Troxprocerus ) नामक भृंग इसके अण्डे खाकर नष्ट कर देता हैं ।
• बैसिलस थुरिन्जिएन्सिस ( Bacillus thuringiensis ) बैक्टीरिया भी टिड्डी के जैविक नियंत्रण में प्रभावी होता हैं ।
• मैना ( Myna ) और तिलियर पक्षी ( Starling bird ) पक्षियों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण देकर इनका जैविक नियंत्रण किया जा सकता हैं ।
रासायनिक प्रबन्धन –
• कीट के प्रजनन स्थल के चारों ओर गहरी नाली ( Trench ) खोद कर उनमें 2 प्रतिशत लिण्डेन चूर्ण का भुरकाव कर देने से नवजात अर्भक को नष्ट किया जा सकता हैं ।
• अर्भकों के रास्ते में सुबह – सांयकाल जहरीला चारा ( गेहूँ की भूसी , सोडियम फ्लुओसिलिकेट या पेरिस ग्रीन नामक विष तथा थोड़ा शीरा ) मिलाकर फैला देते हैं जिसको खाकर यह अर्भक मर जाते हैं ।