पादप पुरःस्थापन ( Plant Introduction ) : परिभाषा, प्रकार, प्रक्रिया, लाभ, दोष

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पादप पुरःस्थापन ( Plant Introduction )

 

परिभाषा ( Definition ) – किसी जीन प्रारूप को नये स्थान या वातावरण में उगाने की क्रिया को पादप पुरःस्थापन कहते हैं ।

पुरःस्थापन के द्वारा एक ही वर्ष में अति शीघ्र सस्य सुधार किया जा सकता है , परन्तु इसकी सफलता अनुकूलन ( Acclimatization ) पर निर्भर होती है ।

अनुकूलन ( Acclimatization ) : किसी पौधे अथवा पौधों का नये परिवर्तित वातावरण में अभ्यस्त होना तथा अपने आप को वातावरण के अनुकूल बना लेना ही अनुकूलन कहलाता है ।

 

पादप पुरःस्थापन के प्रकार ( Type of Plant Introduction ) –

1. प्राथमिक पुरःस्थापन – जब पुरः स्थापित किस्म को बिना किसी चयन के नई किस्म के रूप में विमोचित कर खेती के लिए वितरित किया जाता है तो इसे प्राथमिक पुरःस्थापन कहते हैं ।

2. द्वितीयक पुरःस्थापन – जब पुरःस्थापित किस्मों में चयन करके या उनका किसी स्थानीय किस्म से संकरण करके नई उन्नत किस्मों का विकास किया जाता है तो इसे द्वितीयक पुरः स्थापन कहते हैं ।

 

पादप पुरः स्थापन की प्रक्रिया ( Procedure of plant introduction ) – पादप पुरः स्थापन में कुल छः क्रियाएँ या चरण होते हैं –

1. अर्जन ( Procurement ) : वांछित जननद्रव्य या किस्म को प्राप्त करने को अर्जन कहते हैं । सभी पादप पुरःस्थापन राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो ( NBPGR ) नई दिल्ली के माध्यम से होना अनिवार्य है ।

2. संगरोध ( Quarantine ) : बाहर से आयातित बीजों तथा पादप उत्पादों का रोग , कीट एवं खरपतवारों से मुक्त होना सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को संगरोध कहते हैं ।

3. सूचीबद्धन ( Cataloguing ) : ब्यूरो को प्राप्त होने वाले सभी विभेदों ( Strains ) या प्रविष्टियों ( Entries ) को एक क्रम संख्या ( Serial number ) से निर्दिष्ट किया जाता है । इसके साथ ही , प्रत्येक प्रविष्टि की प्रजाति , किस्म , उद्गम ( Origin ) , अनुकूलन ( Adaptation ) अभिलक्षण ( Characteristics ) आदि रिकार्ड कर लिये जाते हैं ।

4. मूल्यांकन ( Evaluation ) : ब्यूरो द्वारा प्राप्त सभी प्रविष्टियों को ब्यूरो के ईसापुर प्रक्षेत्र तथा अन्य चार केन्द्रों पर उगाया जाता है । इन प्रविष्टियों का उपज तथा अन्य अभिलक्षणों के लिए मूल्यांकन किया जाता है ।

5. गुणन एवं वितरण ( Multiplication and Distribution ) : जब परीक्षणों में किसी प्रविष्टि की उपज तथा अन्य अभिलक्षण प्रचलित उन्नत किस्मों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट होते हैं , तो ऐसी प्रविष्टि को नई किस्म के रूप में विमोचित किया जाता है ऐसी किस्मों के बीज का उत्पादन तथा वितरण बीज निगमों द्वारा किया जाता है ।

 

पादप पुरःस्थापन के लाभ ( Advantages of Plant Introduction ) –

1. इसके द्वारा नई फसलें प्राप्त की जा सकती हैं ।

2. पुरःस्थापन द्वारा बिना चयन तथा संकरण किए नई उन्नत किस्में प्राप्त की जा सकती हैं , जिससे समय , श्रम एवं धन की बचत होती है ।

3. फसलों को नए रोग व कीट- मुक्त क्षेत्रों में पुरःस्थापित करके उनकी रोगों व कीटों से रक्षा की जा सकती है ।

4. वैज्ञानिक शोध के लिए आवश्यक पादप प्रजातियां प्राप्त की जा सकती है ।

 

पादप पुरःस्थापन के दोष ( Disadvantages of Plant Introduction ) –

1. पुरःस्थापित विभेदों के साथ खरपतवारों का प्रवेश हो जाता है जैसे – सत्यानाशी , गेहूँसा खरपतवार ।

2. पुरःस्थापित किस्मों के साथ देश में नए रोगों के रोगजनक भी प्रवेश कर जाते हैं , जैसे श्रीलंका से कॉफी किट्ट आदि ।

3. कई पुरःस्थापित प्रजातियां अनिष्टकारी खरपतवार के रूप में फैल जाती है जैसे – जलकुंभी ।

4. कुछ पुरःस्थापित प्रजातियों से पारिस्थितिक संतुलन पर खराब प्रभाव पड़ सकता है जैसे यूकेलिप्टस से भूमिगत जल – भंडारों में कमी ।

 

पादप पुरःस्थापन की उपलब्धियाँ ( Achievements of Plant Introduction ) : भारत में पादप पुरःस्थापन द्वारा अनेक फसलें एवं किस्में प्राप्त हुई है –

नई फसलें ( New Crops ) : आलू , मक्का , मूँगफली , अरहर , मटर , टमाटर , गन्ना , पपीता इत्यादि ।

नई किस्में ( New Varieties ) : धान की TN – 1 , IR – 8 , IR – 28 , IR – 36 किस्में , गेहूँ की रिड्ले , लरमा रोहो एवं सोनारा 64 इत्यादि ।

 

पुनरोत्पादन ( Regeneration ) : किसी प्रविष्टि के बीजों या प्रबर्थ्यो की खेत में उगाने तथा इन पौधों से इस प्रविष्टि के नये बीज या प्रवयों को प्राप्त करने की किया को पुनरोत्पादन कहते हैं ।

जननद्रव्य संग्रहों की प्रविष्टियों को प्रत्येक कुछ वर्षों बाद पुनरोत्पादित करना अत्यन्त आवश्यक है , क्योंकि बीजों / प्रवर्थ्यो की जीवन अवधि सीमित होती है और सभी फसलों के बीजों की अंकुरण क्षमता भण्डारण अवधि के साथ घटती जाती है ।

 

आनुवांशिक अपरदन ( Genetic Erosion ) – कृष्य प्रारूपों एवं उनके जंगली संबधियों में उपस्थित विविधता में धीरे – धीरे कमी होने को आनुवांशिक अपरदन कहते हैं ।

आनुवांशिक अपरदन के मुख्य कारण ( Main causes of Genetic Erosion ) –

1. विविधतापूर्ण देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों का व्यापक स्तर पर उगाया जाना ।

2. खेती की सुधरी पद्धतियों के कारण बहुत सी फसलों के जंगली प्रारूप समाप्त होना ।

3. जनसंख्या के बढ़ते दबाव के कारण जंगली क्षेत्रों को खेती एवं चारागाह के लिए उपयोग में लाना ।

4. औद्योगिक एवं आर्थिक विकास के लिए जल विद्युत परियोजनाएँ , औद्योगिक क्षेत्रों , रेल , सड़कों , भवनों आदि का जंगली क्षेत्रों में निर्माण होना ।

5. किसी नई खरपतवार प्रजाति के पुरःस्थापन ( Introduction ) के कारण फसलों के जंगली सम्बन्धियों का आंशिक या पूर्ण लोप होना ।

 

उद्गम केन्द्र ( Centres of Origin ) : एक रूसी आनुवांशिकीविद् वैविलोव ने पूरे संसार की फसलों एवं उनके जंगली संबधियों के बहुत से विभिन्न प्रारूपों को संग्रह करके व्यापक अध्ययन किया । इन अध्ययनों के आधार पर उसने सुझाव दिया कि फसलों का जंगली प्रजातियों से उद्गम संसार के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में हुआ । इन क्षेत्रों को उन्होनें उद्गम केन्द्र कहा ।

प्राथमिक उद्गम केन्द्र

फसलें

चीन

सोयाबीन , मूली , बैंगन ।

भारत

धान , अरहर , चना , लोबिया , मूंग , गन्ना , काली मिर्च , आम , हल्दी , केला ।

मध्य एशिया या अफगानिस्तान

गेहूँ ( ट्रि . एस्टिवम ) , अलसी , तिल , गाजर , प्याज , लहसुन , बादाम , अंगूर , सेब ।

एशिया माइनर या पर्सिया

राई , लूसर्न , पत्तागोभी , जई , अंजीर , अनार , अंगूर एवं बादाम ।

भूमध्यसागरीय एबिसीनिया

जौ , मटर , पत्तागोभी , प्याज , सेम , ज्वार , बाजरा , मसूर , कुसुम , अरंड , कॉफी , भिंडी ।

मध्य अमेरिका या मेक्सिको

मक्का , राजमा , सेम , शकरकंद , तरबूज , खरबूज , मिर्च , पपीता , अमरूद ।

दक्षिण अमेरिका

आलू , मक्का , मूँगफली , अन्नानास , टमाटर , तंबाकू , रबर ।

उद्गम केन्द्र के प्रकार ( Types of Centres of Origin ) – 

1. प्राथमिक उद्गम केन्द्र ( Primary Centre of Origin ) : जिस क्षेत्र में किसी फसल की उत्पत्ति जंगली प्रजातियों से होने का विश्वास किया जाता है , उस क्षेत्र को उस फसल का प्राथमिक उद्गम केन्द्र कहा जाता है ।

2. द्वितीयक उद्गम केन्द्र ( Secondary Centres of Origin ) : जिन क्षेत्रों में किसी फसल के कृष्य प्ररूपों ( Cultivated forms ) में बहुत अधिक विविधता पायी जाती है में उसे उस फसल का द्वितीयक उद्गम केन्द्र कहा जाता है।

 

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