पादप प्रजनन ( Plant Breeding ) : परिभाषा, परिचय, उद्देश्य, क्रियाएँ

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पादप प्रजनन ( Plant Breeding )

 

परिभाषा ( Definition ) : पादप प्रजनन वह कला तथा विज्ञान है , जिसके द्वारा पौधों को अधिक आर्थिक महत्व के बनाने के उद्देश्य से उनकी आनुवांशिकता में सुधार किया जाता हैं ।

फसलों के जीनप्रारूप ( Genotype ) में परिवर्तन करके उनको मानव के लिए उपयोगी बनाने की क्रिया को पादप प्रजनन ( Plant Breeding ) कहते हैं ।

 

परिचय ( Introduction ) : प्राचीन काल में मनुष्य ने जंगली पौधों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप चयन करते हुए उन्हें उपयोगी बनाया । उसके पश्चात , विभिन्न वैज्ञानिकों ने पादप प्रजनन की विधियाँ बताई जैसे : निल्सन एहिल ( Nilsson – Ehle ) एवं उनके सहयोगियों ने 1900 के आस – पास एकल पादप वरण ( single plant selection ) विधि का विकास किया । जोहैन्सन ( Johannsen ) ने 1903 में शुद्ध वंशक्रम ( pure line ) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । मेंडेल ( Mendel ) ने 1856 में वंशागति ( Inheritance ) के नियमों का प्रतिपादन किया । इन नियमों की 1900 में पुनः खोज हुई । इसके बाद जीन अन्योन्यक्रिया ( gene interaction ) , सहलग्नता ( linkage ) आदि की खोज हुई तथा यह ज्ञात हुआ कि जीन गुणसूत्रों ( chromosomes ) में स्थित होते हैं ।

इन पादप प्रजनन के सिद्धान्त एवं विधियों का उपयोग करते हुए हमारे देश में विभिन्न फसलों में अविस्मरणीय कार्य हुआ । उदाहरणत : गेहूँ की बौनी किस्म , गन्ने का नोबलीकरण , संकर मिलेट , कपास की संकर किस्म ( H4 ) आदि ।

 

पादप प्रजनन के उद्देश्य ( Objectives of Plant Breeding ) –

1. अधिक उपज ( Higher Yield ) : विभिन्न फसलों की स्थानीय कृषिगत किस्मों की तुलना में अधिक उपज देने वाली किस्मों का निर्माण करना पादप प्रजनन का मुख्य उद्देश्य है , उन्नत किस्मों का बीज बुवाई के लिये उपयोग करने मात्र से उपज में 20-25 प्रतिशत तक बढ़ोतरी संभव है ।

2. उत्पाद के गुणों में सुधार करना ( Improvement in the Quality of Product ) : अधिक उपज के साथ – साथ , उत्पाद अन्य गुणों में भी उत्तम होना चाहिए । उत्पाद उपभोक्ताओं की आशाओं के अनुरूप होने पर किसान को उसके उत्पाद के लिए अधिक आर्थिक लाभ मिलता है । उदाहरणार्थ मीठी मक्का , कपास में लम्बा तथा शक्तिशाली रेशा , फलों में आकार एवं स्वाद , दालों मे प्रोटीन की मात्रा , तिलहनों में तेल की मात्रा आदि ।

3. कीट एवं रोग प्रतिरोधी किस्मों का विकास ( Development of Disease & Insect Resistant Varieties ) : रोगों एवं कीटों से फसलों की हानि रोकने के लिए प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है । प्रतिरोधी किस्मों को उगाने से उत्पादन अधिक एवं स्थिर होता है ।

4. अधिक दक्षता वाली किस्मों का विकास ( Development of Varieties with Increased efficiency ) : नई किस्मों द्वारा खाद / उवर्रकों तथा सिंचाई आदि का पर्याप्त उपयोग उत्पादन क्षमता बढ़ाने में होना चाहिए ।

5. शीघ्र पकना ( Early Maturity ) : फसलों में जल्दी पकने वाली किस्में अधिक उपयोगी होती हैं । धान की जल्दी पकने वाली किस्मों के कारण ही , धान – गेहूँ फसल चक्र संभव हो सका है ।

6. समकाल पकना ( Synchronous Maturity ) : ऐसी फसलें जिनमे एक साथ फसल नही पकने से सम्पूर्ण फसल की कटाई एक बार में नहीं की जा सकती इसलिए कुछ फसलें जैसे मूँग , उड़द आदि में एक साथ पकने वाली किस्मों का विकास अत्यन्त आवश्यक है ।

7. प्रकाश असंवेदिता ( Photo insensitivity ) : किसी फसल को नए एवं विभिन्न जलवायु वाले क्षेत्रों में उगाने के लिए प्रकाश असंवेदित किस्मों का विकास आवश्यक होता है ।

8. प्रषुप्ति ( Dormancy ) : कुछ फसलें जैसे बाजरा , ज्वार , जो , गैहूं आदि में प्रषुप्ति अवस्था नही होती अतः पकने के समय बरसात होने पर उनके बीज बाली में ही अंकुरित हो जाते हैं । ऐसी फसलों में थोड़ी प्रषुप्ता वाली किस्मों का विकास महत्त्वपूर्ण है ।

9. नई ऋतुओं के लिए किस्में ( Varieties for new seasons ) : कुछ फसलों को वर्तमान नए मौसम मे उगाया जा रहा है जैसे मक्का को खरीफ , रबी तथा जायद में भी उगाया जा रहा है । नए मौसम मे अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है ।

10. सूखा एवं लवण रोधिता ( Drought and Salt resistance ) : देश की अधिकांश ( लगभग 70 प्रतिशत ) खेती असिंचित है और अधिकांश भूमि मे लवणों की अधिकता है अतः इन क्षेत्रों के लिए सूखा एवं लवण रोधी किस्मों का विकास आवश्यक है ।

11. अविषालु पदार्थों से मुक्ति ( Freedom from Toxic Substances ) : कई फसलों में कुछ अविषालु पदार्थ होते हैं , उदाहरणार्थ सरसों के तेल में मौजूद ईरूसिक अम्ल मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है । ऐसी फसलों की उन्नत किस्मों को इन पदार्थों से मुक्त करना अत्यन्त आवश्यक है ।

12. अविसरण ( Non Shattering ) : विसरित न होने वाली किस्मों का विकास मूंग , उड़द , सरसों जैसी फसलों में काफी उपयोगी होगा ।

 

पादप प्रजनन की क्रियाएँ ( Activities in Plant Breeding ) –

उन्नत किस्मों के विकास एवं उनके बीजों के वितरण तक निम्न क्रियाएँ करनी होती है :

1. विविधता का उत्पादन ( Creation of Variation ) : फसल सुधार के लिए विविधता एक मूलभूत आवश्यकता होती है । विविधता नही होने पर किसी भी फसल में सुधार करना असंभव होता है । विविधता निम्न प्रकार से उत्पन्न की जा सकती

( i ) ग्राम्यन ( Domestication ) : मनुष्य द्वारा जंगली प्रजातियों को खेती करने के लिए , उगाने को ग्राम्यन कहते हैं । ग्राम्यन , पादप प्रजनन के इतिहास की प्रथम अवस्था है । यह पादप प्रजनन का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है क्योंकि इसके बाद ही पादप प्रजातियां प्रजनन के लिए उपलब्ध हो पाती हैं ।

( ii ) जननद्रव्य संग्रह ( Germplasm Collection ) : फसल प्रजातियों तथा उसके जंगली सम्बन्धियों में उपस्थित आनुवांशिक द्रव्य के पूरे समूह को उस प्रजाति का जनन द्रव्य कहा जाता है ।

( iii ) पादप पुरःस्थापन ( Plant Introduction ) : किसी पादप प्रजाति या किस्म को उस स्थान पर जहाँ पर वह पहले पाई या उगाई नहीं जाती रही हो , को ले जा कर उगाना पादप पुरःस्थापन कहलाता है । पादप पुरःस्थापन पादप प्रजनन की एक प्राचीन और आज भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधि है ।

( iv ) संकरण ( Hybridization ) : भिन्न – भिन्न गुणों के पादपों में परस्पर संकरण की क्रिया द्वारा उन्नत किस्मों का विकास किया जाता है ।

( v ) उत्परिवर्तन ( Mutation ) : किसी जीव के किसी लक्षण में आकस्मिक एवं वंशानुगत परिवर्तन को उत्परिवर्तन कहते हैं ।

( vi ) बहुगुणिता ( Polyploidy ) : किसी स्पेसीज की कायिक कोशिकाओं में पाये जाने वाले गुणसूत्रों की संख्या 20 से भिन्न एवं अधिक होने कि अवस्था को बहुगुणिता कहते हैं ।

( vii ) आनुवांशिकी अभियांत्रिकी ( Genetic Engineering ) : जैविक कारकों जैसे सूक्ष्म जीवों , जन्तुओं एवं पादप कोशिकाओं के जीन संरचना में परिवर्तन करके तथा उनके अवयवों के नियन्त्रित उपयोग से उपयोगी उत्पादों अथवा सेवाओं के उत्पादन को आनुवांशिकी अभियांत्रिकी कहते हैं ।

 

2. चयन ( Selection ) : किसी फसल में उपस्थित विविधता में से अच्छी एवं उत्तम गुणों वाली लाईनों को छाँटकर अलग करना ही चयन कहलाता है । यह पादप प्रजनन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है । चयन की दक्षता पर ही किसी पादप प्रजनन कार्य की सफलता निर्भर होती हैं ।

3. मूल्यांकन ( Evaluation ) : वर्तमान किस्मों एवं विकसित लाईनों के निष्पादन की तुलना की जाती है । यह तुलना कई स्थानों पर दो से अधिक वर्षों तक उपज परीक्षणों के माध्यम से की जाती है ।

4. गुणन ( Multiplication ) : विमोचित उन्नत किस्मों के बीजों का गुणन कई चरणों में किया जाता है । फसल सुधार का समाज एवं देश को तभी लाभ मिल सकता है जब नई विकसित किस्म के बीज किसानों तक पहुँचें एवं उनको उगाया जाए ।

5. वितरण ( Distribution ) : उच्च गुणवत्ता वाले बीजों को किसानों तक पहुँचाने के लिए की गई क्रिया को वितरण कहते हैं ।

 

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