बहुगुणिता ( Polyploidy )
परिचय ( Introduction ) : किसी द्विगुणित प्रजाति की कोशिका में दैहिक गुणसूत्रों की दो प्रतियाँ होती हैं । इसे द्विगुणित अवस्था ( 2n ) कहते हैं । द्विगुणित अवस्था ( 2n ) की तुलना में गुणसूत्रों की संख्या में कमी या वृद्धि को संख्यात्मक गुणसूत्र विपथन कहते हैं
बहुगुणिता के प्रकार ( Types of Polyploidy ) : बहुगुणिता मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं –
( i ) असुगुणिता ( Aneuploidy ) : इनमें कोशिका के द्विगुणित गुणसूत्रों की ( 2n ) संख्या में एक या एक से अधिक गुणसूत्रों की कमी या वृद्धि होती है जैसे 2n – 1 , 2n + 2 आदि ।
( ii ) सुगुणिता ( Euploidy ) : इसमें द्विगुणित गुणसूत्रों की प्रतियों की संख्या में परिवर्तन होता हैं । जैसे 2n , 3n , 4n आदि ।

असुगुणिता के पादप प्रजनन में उपयोग ( Uses of Aneupolyploidy in Plant Breeding ) : आनुवांशिक अध्ययनों में असुगुणितों का लगातार प्रयोग होता है क्योंकि इनसे असामान्य विसंयोजन अनुपात ( Abnormal Segregation Ratio ) प्राप्त होता है । प्रायः असुगुणितों का प्रयोग पादप प्रजनन में निम्न उद्देश्यों के लिये किया जाता है –
( i ) न्यूनसूत्रियों ( Aneuploids ) के प्रयोग द्वारा प्रतिस्थापन लाइनें ( Substitution Lines ) बनाई जाती हैं । प्रतिस्थापन लाइनों के माध्यम से एक जाति से दूसरी जाति में रोधिता जीनों का स्थानान्तरण किया जाता है ।
( ii ) एकाधिसूत्रियों ( Trisomics ) का उपयोग विदेशी योग लाइनों ( Alien Addition Lines ) के उत्पादन के लिये किया जाता है । इनमें गुणसूत्रों को एक जाति से दूसरी जाति में स्थानान्तरित किया जाता हैं ।
( iii ) असुगणितों में से मुख्यतः द्विन्यूनसूत्रियों ( Nullisomics ) का उपयोग यह निश्चित करने के लिये किया जाता है कि कौनसा जीन किस गुणसूत्र पर उपस्थित हैं ।
अगुणित का पादप प्रजनन में उपयोग ( Uses of Haploid in Plant Breeding ) : अगुणित पौधों में क्योंकि गुणसूत्रों का केवल एक ही समुच्चय होता है अतः एक समुच्चय के द्विगुणन ( Doubling ) से ऐसे पौधे उत्पन्न होते हैं जो सभी जीन्स के लिए समयुग्मज ( Homozygous ) होंगे । समयुग्मजी द्विगुणितों का उत्पादन ही अगुणितों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपयोग है ।
गुणसूत्रों का द्विगुणन दो प्रकार से किया जाता –
( 1 ) कोल्चीसीन ( Colchicine ) उपचार द्वारा तथा
( 2 ) शिरच्छेदन कैलस क्रिया ( Decapitation Callus Process ) द्वारा ।
स्वबहुगुणिता का पादप प्रजनन में उपयोग ( Uses of Autopolyploidy in Plant Breeding ) : स्वबहुगुणिता का प्रभाव अलग – अलग प्रजातियों में अलग – अलग होता है । इनमें से कुछ सामान्य प्रभावों का वर्णन द्विगुणित से तुलनात्मक आकार पर नीचे दिया गया है –
1. कुछ प्रजातियों में स्वबहुगुणिता का प्रभाव आमाप ( size ) एवं ओज ( vigour ) पर अपेक्षाकृत अधिक होता है ।
2. सामान्यतः स्वबहुगुणितों की पत्तियाँ बड़ी एवं मोटी , पुष्प , फल एवं बीज बड़े होते हैं परन्तु इनकी संख्या अपेक्षाकृत द्विगुणित से कम होती है ।
3. स्वपरागित फसलों की अपेक्षा परपरागित फसलों में स्वबहुगुणिता के सफल होने की संभावना अधिक होती है ।
4. अधिक क्रोमोसोम संख्या वाली प्रजातियों की अपेक्षा कम क्रोमोसोम संख्या वाली प्रजातियों में स्वबहुगुणिता के सफल होने की संभावना अधिक होती है ।
परबहुगुणिता का पादप प्रजनन में उपयोग ( Use of Allopolyploidy in Plant Breeding ) : फसलों के सुधार में स्वबहुगुणिता की अपेक्षा में बहुगुणिता की उपयोगिता बहुत ज्यादा है । परबहुगुणिता को दो प्रकार से फसलों में सुधार के लिए प्रयुक्त किया जाता हैं –
( i ) बहुगुणिता की सहायता से एक जाति के बहुत से लक्षण एक साथ ही दूसरी जाति में स्थानान्तरित किये जा सकते हैं तथा जिन जातियों में सीधा संकर सम्भव नहीं होता है उनमें उभय द्विगुणित के द्वारा संकरण किये जाते हैं ।
( ii ) बहुगुणिता द्वारा फसलों की बहुत सी नई जातियाँ निकाली गयी हैं । ट्रिटिकेल मानव निर्मित प्रथम बहुगुणित धान्य फसल है जो कि गेंहूँ एवं राई ( Rye ) के संकरण से उत्पन्न संकर के गुणसूत्रों की संख्या को द्विगुणित करने से उत्पन्न हुआ है ।
षट्गुणित गेहूँ का उद्विकास ( Evolution of Hexaploid Wheat ) : गेहूँ एक परबहुगुणित पौधा है जिसमें तीन भिन्न जिनोम A , B एवं D पाये जाते हैं । इन जीनोम की स्त्रोत प्रजातियां निम्नलिखित हैं –
जिनोम A = ट्रिटिकम मोनोकॉकम ( Triticum Monococcum )
जिनोम B = अज्ञात प्रजाति जो कि सम्भवत लुप्त हो चुकी हैं ।
जिनोम D = एजिलोप्स ( Aegilops tauschii )