मृदा उर्वरता : परिभाषा , प्राकृतिक कारक और कृत्रिम कारक

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मृदा उर्वरता ( Soil Fertility )

पादप वृद्धि के लिए अनुकूल दशाओं में मृदा द्वारा आवश्यक पोषक तत्वों को प्राप्य रूप , उचित मात्रा तथा उपयुक्त सन्तुलन में प्रदान करने की क्षमता को मृदा उर्वरता कहते हैं ।

उपजाऊ भूमि के लिए आवश्यक तत्वों के साथ – साथ भूमि की भौतिक दशा , जल एवं वायु का अनुपात , जीवाणुओं की क्रियाशीलता तथा उपयुक्त तापक्रम का होना भी आवश्यक है । सामान्यतया उपजाऊ मृदायें उत्पादक होनी चाहिए किन्तु यह तथ्य सभी दशाओं में सत्य नहीं है । मौसम की प्रतिकूल दशाओं जैसे कि- ओले , पाला , तूफान तथा बीमारियों आदि द्वारा फसल नष्ट हो जाए तो भूमि उपजाऊ होते हुए भी उत्पादक नहीं कहलाएगी ।

मृदा उर्वरता को प्रभावित करने वाले कारक –

( अ ) प्राकृतिक कारक – ( Natural factors ) –

1. पैतृक पदार्थ ( Parent material ) : मृदा की उर्वरता पैतृक पदार्थ पर निर्भर करती है । यदि पैतृक पदार्थ में पौधों के पोषक तत्व अधिक हैं तो उनसे निर्मित मृदायें प्रायः उपजाऊ होती हैं । अम्लीय आग्नेय चट्टानों और बालू पत्थर के अपक्षय द्वारा बलुई मृदाओं का निर्माण होता है । इनमें क्षार की मात्रा कम पायी जाती है । इन मृदाओं की उर्वरता अपेक्षाकृत कम होती है । क्षारीय और अवसादी चट्टानों के अपक्षय से भारी मृदाओं का निर्माण होता है , जिनमें क्षार की मात्रा अधिक पायी जाती है और इन मृदाओं की उर्वरता भी अधिक होती है ।

2. स्थलाकृति ( Topography ) : ढालू पहाड़ी क्षेत्रों की मृदाएँ अपक्षालन एवं मृदा क्षरण के कारण कम उपजाऊ होती हैं । निचले भागों की मृदाओं में ऊँचे स्थानों की मृदाओं के पोषक तत्व एवं कार्बनिक पदार्थ पानी के साथ बहकर एकत्रित हो जाते हैं , इसलिए ये मृदायें अधिक उपजाऊ होती हैं । इस प्रकार पहाड़ी प्रदेशों एवं अन्य ऊँचे – नीचे स्थानों की मृदा उर्वरता मैदानी एवं समतल भूमि की अपेक्षा कम होती है ।

3. मृदा आयु ( Soil age ) : मृदा आयु के साथ मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है । पुरानी मृदाओं में अधिक अपक्षय , लगातार फसलों के उगाने , मृदा क्षरण एवं अपक्षालन के कारण उनकी उर्वरता नवनिर्मित मृदाओं की अपेक्षा कम होती है ।

4. जलवायु ( Climate ) : अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अपक्षालन क्रिया द्वारा अधिकांश घुलनशील पोषक तत्व निचले संस्तरों में चले जाते हैं , जिससे मृदा की ऊपरी सतह की उर्वरता कम हो जाती है । इसी प्रकार कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भूमि के क्षारीय होने का भय रहता है । अधिक तापक्रम मृदा के कार्बनिक पदार्थ का विघटन शीघ्रता एवं सरलता से कर देता है , जिससे इन क्षेत्रों की मृदा उर्वरता कम हो जाती है । अधिक तेज व शुष्क वायु के कारण भी मृदा क्षरण होता है , जिससे मृदा की उपजाऊ क्षमता घट जाती है ।

5. मृदा प्रोफाइल की गहराई ( Depth of soil profile ) : गहरी मृदा उथली मृदा की अपेक्षा अधिक उपजाऊ होती है । गहरी मृदाओं में पौधों की जड़ें अधिक गहराई तक जाकर अच्छी प्रकार फैल जाती हैं और अधिक मात्रा में जल व पोषक तत्व अवशोषण कर सकती हैं । उथली मृदाओं में सूखे की स्थिति में पौधे पानी की कमी महसूस करने लग जाते हैं जिससे पौधों की वृद्धि उचित रूप में नहीं हो पाती है ।

6. मृदा की भौतिक दशा ( Physical condition of soil ) : मृदा की भौतिक दशा इस प्रकार होनी चाहिए कि उसमें पौधों की बढ़वार हो सके तथा वायु एवं जल संचार पर्याप्त हो । मृदा की भौतिक दशा अच्छी होने पर उसकी जल धारण क्षमता , जीवाणुओं की क्रियाशीलता तथा जीवांश पदार्थों की सड़न बढ़ जाती है एवं जड़ों का विकास अच्छा होता है । बलुई मृदाओं में रंध्राकाश ( Pores ) बड़े होते हैं जिससे जल के साथ पोषक तत्व बड़ी शीघ्रता से नीचे की ओर चले जाते हैं । इस कारण इन मृदाओं की उर्वरता कम हो जाती है । इसके विपरीत बारीक कणों वाली मृदाओं जैसे सिल्ट और क्ले की उर्वरता अधिक होती है ।

7. मृदा अपरदन ( Soil erosion ) : मृदा कटाव से मिट्टी के साथ – साथ पौधों के आवश्यक तत्व भी बह जाते हैं , जिससे मृदा की उर्वरता कम हो जाती है ।

8. मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की मात्रा ( Quantity of available nutrients in soil ) : यह देखा गया है कि विभिन्न प्रकार की मृदाओं में अन्तर्निहित पोषक तत्वों की मात्रा अलग – अलग होती है । कुछ मृदाओं में नाइट्रोजन की कमी पायी जाती है तो कुछ में फॉस्फोरस की । कुछ मृदाओं में किसी एक विशेष तत्व की अधिकता भी पायी जाती है । जिन मृदाओं में अन्तर्निहित तत्वों की मात्रा अधिक होती है उनकी उर्वरता भी अधिक होती है ।

 

( ब ) कृत्रिम कारक ( Artificial factors ) – 

1. जलाक्रान्ति ( Water logging ) : जब मृदा में फसल की आवश्यकता से अधिक जल का भराव होता है और इसके निकास का उचित प्रबन्ध नहीं होता है तो मृदा में वायु की कमी हो जाती है । इस स्थिति में विनाइट्रीकरण को प्रोत्साहन मिलता है । परिणामस्वरूप मृदा उर्वरता में कमी हो जाती है । अधिक पानी भरने से मृदा की भौतिक दशा भी खराब हो जाती है तथा आवश्यक पोषक तत्व अपक्षालन द्वारा जड़ क्षेत्र से नीचे चले जाते हैं ।

2. फसल प्रणाली ( Cropping system ) : यदि एक निश्चित भूभाग पर प्रति वर्ष एक ही फसल उगाई जाती है तो यह फसल प्रति वर्ष निश्चित तत्वों का शोषण करती रहती हैं जिसके फलस्वरूप इन तत्वों की मृदा में कमी हो जाती है व उर्वरता कम हो जाती है । सघन खेती करने से मृदा उर्वरता में शीघ्र गिरावट आ जाती है । जबकि वैज्ञानिक ढंग से फसल चक्र के अनुसार फसलें उगाने पर मृदा की उर्वरता बनी रहती है । फसल चक्र में दाल वाली फसलें उगाने से मृदा उर्वरता बढ़ती है ।

3. मृदा पी.एच. ( Soil pH ) : मृदा उर्वरता एवं पौधों को पोषक तत्वों की प्राप्यता मृदा पी.एच. द्वारा प्रभावित होती है । अधिक अम्लीय मृदा में कैल्शियम और मैग्नीशियम की मात्रायें कम रहती हैं तथा लोहा , एल्यूमिनियम , मैंगनीज व तांबा की इतनी अधिकता हो जाती है कि इनका पौधों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है । इसके विपरीत क्षारीय मृदाओं में कैल्शियम व मैग्नीशियम की मात्रा अधिक तथा लोहा , मैंगनीज व तांबे की प्राप्यता कम हो जाती है । इस प्रकार इन मृदाओं की उर्वरता भी कम होती है ।

4. मृदा सूक्ष्म जीव ( Soil micro – organisms ) : मृदा में उपस्थित मुख्य सूक्ष्म जीव शैवाल , कवक , एक्टीनोमाइसिटीज तथा जीवाणु हैं । शैवाल में मृदा में वायु संचार को बढ़ाती है जिससे नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है । कवक तथा एक्टीनोमाइसिटीज जटिल कार्बनिक पदार्थों का विच्छेदन कर ह्यूमस बनाने में सहायता करते हैं । ये मृदा में कार्बनिक पदार्थों को संचित करके मृदा उर्वरता को बनाये रखते हैं । राइजोबियम जीवाणु वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके पौधों को प्राप्य अवस्था में प्रदान करते हैं । इस प्रकार भूमि में सूक्ष्म जीव जितने अधिक क्रियाशील होंगे उतनी ही अधिक भूमि उपजाऊ होगी ।

5. मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा ( Organic matter content in soil ) : कार्बनिक पदार्थ सड़ने पर पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करते हैं । अतः जिन मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है उनकी उर्वरा शक्ति भी अधिक होती है । चिकनी मृदा बलुई मृदा की अपेक्षा अधिक उपजाऊ होती है ।

6. मृदा जुताई की विधि व समय ( Method and time of ploughing ) : ढालू खेतों की जुताई ढाल के लम्बवत् करने से मृदा कटाव कम होता है और पोषक तत्व पानी के साथ बहकर खेत से बाहर नहीं जाते हैं । आवश्यकता से अधिक जुताई करना हानिकारक होता है क्योंकि अधिक ताप से कार्बनिक पदार्थ जल जाता है तथा भौतिक दशा पर कुप्रभाव पड़ता है । भूमि को उचित गहराई तक समय पर जोतने से उसकी उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है ।

 

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