सिंचाई की विधियाँ ( Irrigation Methods ) : विधियों के लाभ एवं सीमाएँ

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सिंचाई की विधियाँ ( Irrigation Methods )

 

1. चौकेबार द्रोणी सिंचाई विधि ( Check Basin Irrigation Method ) – खेतों में सिंचाई हेतु यह सर्वाधिक प्रचलित विधि है । इस विधि के अन्तर्गत खेत का समतलीकरण कर उसे वर्गाकार अथवा आयताकार क्यारियों में विभाजित कर दिया जाता है । इन क्यारियों को चौकेबार ( Check basin ) कहते हैं । खेत में ढाल अनुसार क्यारियों में जल प्रवाह हेतु नालियाँ बनाई जाती हैं । प्रत्येक चौकेबार में आवश्यकतानुसार पानी भरा जाता है ।

लाभ –

1. सममतल भूमि पर अनियंत्रित आप्लवन विधि की अपेक्षा अधिक जल उपयोग दक्षता प्राप्त की जाती है ।

2. अपवाह व अन्तः स्त्रवण जैसी समस्याओं में कमी आती है ।

3. खेत में जल वितरण समान होता है ।

4. सरल विधि है ।

सीमाएँ –

1. खेत में पानी प्रवाह हेतु बनाई गई नालियों से भूमि का बड़ा भाग बुआई के काम नहीं आता है ।

2. नालियों से खेत में मशीनों के उपयोग में कठिनाई व निराई – गुड़ाई में व्यवधान उत्पन्न होता है ।

3. पृष्ठीय जल निकास बाधित होता है ।

4. खेत में अपेक्षाकृत समतलीकरण होना आवश्यक होता है ।

5. खेत की तैयारी में अधिक मजदूर चाहिये ।

 

2. बोर्डर पट्टी सिंचाई विधि ( Border Strip Irrigation Method ) – इस विधि में खेत के ढाल की दिशा में लम्बी – लम्बी पट्टियां समानान्तर रूप से बनाई जाती है । प्रत्येक पट्टी में ऊपर की ओर से पानी छोड़ा जाता है जो कि महीन परत के रूप में निचले सिरे की ओर बहता हुआ आता है । प्रत्येक पट्टी की लम्बाई व चौड़ाई जल बहाव , ढलान प्रतिशत व भूमि की बनावट अनुसार होती है । यह विधि पास – पास बोई जाने वाली फसल जैसे गेहूँ इत्यादि के लिये उपयुक्त है ।

लाभ –

1. आसान विधि है ।

2. अधिक जल मात्रा व प्रवाह को आसानी से प्रयुक्त किया जा सकता है ।

3. निराई – गुड़ाई व मशीनों के प्रयोग में सुगमता होती है ।

4. मेड़ों व नालियों के रख – रखाव में कम खर्चा होता है ।

5. जल निकास की व्यवस्था करना आसान होता है ।

सीमाएँ –

1. ऊबड़ – खाबड़ स्थलाकृति की भूमि में यह विधि अपनाना सम्भव नहीं है ।

2. धान जैसी फसलों में इस विधि से सिंचाई करना सम्भव नहीं है ।

3. यदि जल प्रवाह व मात्रा कम हो तो इस विधि से सिंचाई सम्भव नहीं है ।

4. बोर्डर की सम्पूर्ण चौड़ाई में एक समान जल प्रवाह कठिन है ।

 

3. कूंड सिंचाई विधि ( Furrow Irrigation Method ) – यह विधि पंक्तियों में बोई जाने वाली फसलों जैसे मक्का , ज्वार इत्यादि के लिये उपयोगी होती है । अधिक ढाल वाले क्षेत्रों में ढाल की आड़ी दिशा में समोच्य रेखा पर बनाए जाते हैं ।

लाभ –

1. वाष्पन द्वारा जल ह्रास व पपड़ी बनने की की समस्या नहीं होती है ।

2. कम मजदूरों की आवश्यकता होती है ।

3. चौकेबार विधि की अपेक्षा खेत का कम भाग मेड़ व नालियों के काम आता है ।

सीमाएँ –

1. अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मृदा अपरदन की सम्भावना रहती है ।

2. मेड़ों पर लवण एकत्रित होकर पौध वृद्धि पर विपरीत प्रभाव डाल सकते हैं ।

3. बलुई मृदा हेतु उपयुक्त नहीं है ।

4. पानी के दक्ष नियंत्रण हेतु कुशल मजदूर चाहिये ।

 

4. अवपृष्टीय या अधोभूमि सिंचाई ( Sub – Surface Irrigation )  – कुछ स्थानों पर भूमि व स्थलाकृति की प्राकृतिक परिस्थितियाँ पौधों की जड़ों में जल की प्रयुक्ति भूमि की सतह के नीचे से करने के लिये अनुकूल होती है । इसमें धरातल के नीचे पर एक निश्चित गहराई पर कृत्रिम जल स्तर बनाए रख कर फसल को जल आपूर्ति की जाती है । जल खुली नालियों या रन्धयुक्त पाइपों द्वारा की जाती है ।

 

5. बौछारी सिंचाई विधि ( Sprinkler Irrigation Method ) – इस विधि में पानी को बौछार अथवा वर्षा के रूप में वितरित किया जाता है । इस सिंचाई प्रणाली में पम्प द्वारा मुख्य व शाखा पाइप लाइनों में पहुँचाया जाता है जहाँ से वे राइजर ( Riser ) के ऊपरी सिरे पर लगे घूर्णी बौछार यंत्र ( Rotating sprinkler head ) द्वारा फुहार के रूप में फसल के ऊपर गिरता है ।

लाभ –

1. बौछारी प्रणाली पृष्टीय विधियों की अपेक्षा सुगम व सरल है ।

2. समस्त जमीन फसल उगाने के काम आती है जबकि पृष्टीय भूमि का कुछ भाग मेढ़ बनाने के काम आता है ।

3. मेढ़ न होने से यंत्रीकरण सम्भव है ।

4. हल्की व बलुई मृदाओं में जहाँ बार – बार पानी देना पड़ता है , बौछारी विधि अधिक उपयोगी है ।

5. चूंकि खेत तक पानी पाइपों से पहुंचता है अतः रास्ते के जल हास ( Conveyance loss ) नहीं होते हैं ।

6. मृदा पर पपड़ी बनने की समस्या नहीं होती है ।

7. फसलों का पाले से स्वतः बचाव हो जाता है ।

8. सिंचाई के साथ उर्वरक भी दिया जा सकता है ।

9. यह विधि पौधों को वातावरण में आर्द्रता बनाए रखने में सहायक होती है ।

सीमाएँ –

1. अधिक जल माँग वाली फसलों के लिये उपयुक्त नहीं है ।

2. छोटे खेतों में अधिक लागत बैठती है ।

3. अधिक वायु गति होने पर जल वितरण असमान होकर दक्षता घटती है ।

4. पानी साफ नहीं होने की स्थिति में घूर्णी बौछार यंत्र अवरूद्ध हो सकती है ।

5. लवणीय जल हेतु उपयुक्त विधि नहीं है ।

6. आरम्भिक खर्च अधिक है ।

7. पर्याप्त तकनीकी ज्ञान आवश्यक है ।

 

6. बूँद – बूंद सिंचाई विधि ( Drip Irrigation System ) – इस विधि का विकास इज़राइल से हुआ है । यह विधि शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में जहाँ वर्षा कम होती है , मिट्टी बलुई है व वाष्पन – वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल हास अधिक होता है अत्यन्त उपयोगी है । ड्रिप सिंचाई द्वारा जल प्रत्येक पौधे की जड़ के पास बूँद – बूँद टपकता है । इससे जड़ क्षेत्र में संतृप्तावस्था बनी रहती है तथा वहाँ पानी की कमी नहीं रहती है । इस विधि द्वारा उद्यानों , सब्जियों , पंक्तियों में बोई जाने वाली फसलों जैसे गन्ना , कपास इत्यादि में सिंचाई की जाती है ।

लाभ –

1. पौधों की जड़ों में पर्याप्त नमी होने से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है ।

2. पौधों के बीच सूखा रहने से खरपतवार की समस्या नहीं होती है ।

3. सिंचाई के साथ – साथ एक ही बार में उर्वरक भी दिया जा सकता है ।

4. सिंचाई हेतु कम मानव श्रम चाहिये ।

5. कीट – व्याधि की समस्या कम होती है क्योंकि पौधों के पास का वातावरण आर्द्र नहीं होता है ।

6. बार – बार सिंचाई करने से लवणों का निक्षालण हो जाता है ।

7. कम पानी की आवश्यकता होती है ।

8. जल उपयोग दक्षता अधिक होती है ।

सीमाएँ –

1. प्रारम्भिक व्यय अधिक होता है ।

2. कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है ।

3. उत्सर्जक ( Emitter ) का छिद्र छोटा होने से मिट्टी के कणों , जीवांश पदार्थ के रेशे व लवण के कणों से बन्द हो सकते है ।

4. अत्यधिक भारी मृदाओं की अन्तः स्पंदन दर कम होने से जल एकत्रित होने की समस्या हो सकती है ।

5. प्लास्टिक से बनी पार्श्व नालिकाएं चूहे व अन्य जीव नष्ट कर सकते हैं ।

6. वार्षिक फसलों में बार – बार लगाना व हटाना पड़ता है ।

 

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