हरी खाद : परिभाषा, खाद बनाने की विधि, उपयुक्त फसलें, प्रयोग की तकनीक

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हरी खाद बनाने की विधि एवं प्रयोग

 

परिभाषा : दलहनी अथवा अदलहनी फसलों को हरी अवस्था में मृदा मे जीवांश पदार्थ एवं पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने के उद्देश्य से खेत में जुताई कर दबाने की प्रक्रिया को हरी खाद कहते हैं ।

हरी खाद के लिये प्रयुक्त फसलों का मृदा में अपघटन ( विच्छेदन ) होता है । जिसके फलस्वरूप मृदा में जीवांश पदार्थ व विभिन्न पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ती है । हरी खाद्य के प्रयोग से मृदा की रासायनिक , भौतिक व जैविक दशाओं पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है अतः हरी खाद सस्ती , सर्वोत्तम और मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए उपयुक्त जीवांश खाद है ।

 

हरी खाद बनाने की विधियाँ –

1. खेत में हरी खाद की फसल उगाकर मृदा में दबाना – इस विधि में हरी खाद बनाने के लिए जिस खेत मे हरी फसल उगाते है , उसी खेत में उसे पलटकर दबा देते है । इस विधि में हरी खाद के लिए दलहनी या अदलहनी फसल की बुआई की जाती है । फसल उन्हीं क्षेत्रों में उगाई जाती है जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा हो । नमी अभाव में हरी खाद की फसल न तो वृद्धि कर सकती है , न ही दबाने पर सड़ पाती है । हरी खाद हेतु शीघ्र पकने वाली फसलें जैसे – ढेंचा , ग्वार , मूँग , उड़द , सनई , लोबिया आदि की बुआई कर पुष्पावस्था में खेत में दबा देते है।

2. हरी खाद की हरित पर्ण विधि – इस विधि में पेड़ों व झाड़ियों की कोमल ( हरी ) शाखाएँ , टहनियाँ व पत्तियाँ अन्य खेत या क्षेत्र से तोड़कर वाँछित खेत की मृदा में जुताई कर दबाते हैं । पौधों के कोमल भाग में थोड़ी नमी . होने पर भी वे सड़ जाते हैं । इस विधि से हरी खाद उन क्षेत्रों में बनाते है जहाँ कि वार्षिक वर्षा कम होती है । इस विधि में अन्य खेत में उगाई गई हरी खाद की फसल को भी काटकर वांछित खेत में डालकर मृदा में दबा देते हैं । बहुत से पौधों को खेत की मेड़ों और बेकार भूमि में हरी पत्तियों के उद्देश्य से उगाया जाता है । इन पेड़ों और झाड़ियों की हरी पत्तियों को तोड़कर या काटकर खेत में डाल देते है । मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर इन पत्तियों को मृदा के अन्दर दबा देते हैं । इस प्रकार की पत्तियाँ दलहनी व अदलहनी दोनों प्रकार के पौधों को प्रयोग कर सकते है । उदाहरण – सुबबूल , करंज , सदाबहार , अमलताष , सफेद आक आदि ।

 

हरी खाद की फसल के आवश्यक गुण –

1. फसल शीघ्र बढ़ने वाली होनी चाहिए ।

2. फसल में पत्तियों व शाखाओं की संख्या अधिक हो , जिससे प्रति हेक्टेयर अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ मिलाया जा सकें ।

3. फसल गहरी जड़ प्रणाली की हो , जिससे मिट्टी भुरभुरी बन सकें और मृदा में गहराई से पोशक तत्व ग्रहण कर पौधे में संचित कर सके ।

4. हरी खाद की फसल ऐसी होनी चाहिये जो कम उपजाऊ भूमि में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सके ।

5. फसल में कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम होता हो ।

6. फसल कम अवधि की हो ।

7. फसल को ज्यादा खाद व उर्वरक की आवश्यकता न हो ।

8. फसल – चक्र में हरी खाद की फसल का उचित स्थान हो ।

9. फसल को कम पानी की आवश्यकता हो ।

10. फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम हों , ताकि वह आसानी से सड़ सकें ।

11. फसल फलीदार ( दलहनी ) होनी चाहिए , जिससे उसके पौधों की जड़ों में ग्रन्थियाँ होने के कारण राइजोबियम द्वारा वायुमण्डल से नाइट्रोजन का मृदा में स्थिरीकरण हो सके ।

 

हरी खाद के लिए उपयुक्त फसलें – हरी खाद के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली फसलों को दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं- दलहनी एवं अदलहनी फसलें ।

1. दलहनी फसलें – दलहनी या फलीदार फसलें हरी खाद के लिये उपयुक्त रहती हैं , क्योकि इन फसलों की जड़ो की ग्रन्थियों में उपस्थित राइजोबियम जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण करते हैं । साथ ही इन फसलों की वानस्पतिक बढ़वार भी अच्छी होती है तथा इनकी जड़ें भी गहरी जाती है व फसल अवधि भी कम होती है ।

सनई : इसका प्रयोग उत्तरी भारत में किया जाता है । यह बुआई के 6-8 सप्ताह बाद मिट्टी में पलट दी जाती है । लगभग 50 किग्रा . नाइट्रोजन तथा 280 क्विंटल हरा वानस्पतिक पदार्थ प्रति हेक्टेयर इस फसल से प्राप्त हो जाता है ।

ढेंचा : हरी खाद के रूप में ढेंचा का प्रमुख स्थान है । यह फसल ऊसर भूमियों के सुधार में भी काम में ली जाती है । 45 दिन में फसल को खेत में पलट दिया जाता है । इससे लगभग 75 किग्रा . नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है ।

ग्वार : भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में जहाँ वर्षा कम होती है ग्वार हरी खाद के लिए प्रयोग किया जाता है । इससे लगभग 65 किग्रा . नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है ।

लोबिया : खरीफ ऋतु में पौधों की अच्छी बढ़वार होने के कारण ही खाद के लिए यह महत्वपूर्ण फसल है । इससे 150 क्विंटल हरा पदार्थ तथा 50 किग्रा . नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है ।

 

2. अदलहनी फसलें – ये फसलें मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण तो नहीं करती हैं , किन्तु विलय नाइट्रोजन का संरक्षण अवश्य करती है तथा मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि करती हैं , जिनसे मृदा में सुधार होता है । हरी खाद के लिए अदलहनी फसलों में मक्का , जौ , ज्वार आदि का प्रयोग किया जाता है । कई बार खरीफ में खेत में खरपतवार उगने देते है तथा उनमें बीज बनने से पूर्व ही खेत में पलट दिया जाता है । हमारे देश में हरी खाद हेतु अदलहनी फसलों का प्रचलन नहीं है ।

 

हरी खाद प्रयोग करने की तकनीकी – हरी खाद की फसल से उचित लाभ प्राप्त करने के लिए इसके प्रयोग करने की विधि का ज्ञान आवश्यक है । हरी खाद में खेतों में दबाने और अगली फसल की बुआई के मध्य इतना अन्तर होना चाहिए कि हरी खाद से प्राप्त पोषक तत्व अगली फसल को प्राप्त हो सकें ।

1. जलवायु और मृदा – खरीफ में हरी खाद वाली फसलों के लिए गर्म और नम जलवायु उपयुक्त है । सामान्यतः 50 से 60 सेमी . से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हरी खाद की फसलों की वृद्धि अच्छी होती है । फसल के अपघटन के लिए उपयुक्त तापमान 25 से 35 सेल्सियस होता है । रबी में हरी खाद की फसलों को शुष्क व ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है । हरी खाद के लिए बलुई हल्की दोमट मृदा से लेकर लवणीय व कम उपजाऊ मृदा उपयुक्त होती है ।

2. खेत की तैयारी – हरी खाद के लिए खेत की विशेष तैयारी की आवश्यकता होती है । एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद पाटा चलाकर खेत समतल कर देते हैं ।

3. बीज बुआई – हरी खाद के लिए बोई जाने वाली मुख्य फसलों की बीज दर इस प्रकार है ।

फसल

बीज दर (  किग्रा . / हे. )

सनई

50-60

ढेंचा

60-80

ग्वार

20-25

मूंग , उड़द

15-20

लोबिया

45-50

राजस्थान में हरी खाद की फसलों की बुआई वर्षा प्रारम्भ होते ही कर देते हैं । सिंचित क्षेत्रों में रबी की फसल कटते ही अप्रैल से जून तक पलेवा देकर हरी खाद फसलों की बुआई करते हैं ।

4. खाद व उर्वरक – हरी खाद के लिए बोई जाने वाली दलहनी फसलों की अच्छी बढ़वार के लिए बुआई के समय 20 किग्रा . नाइट्रोजन व 40 किग्रा . फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए । अदलहनी फसलों को नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर उपयोग ली जानी चाहिए । दलहनी फसलों में फॉस्फोरस की उपस्थिति में राइजोबियम जीवाणु अधिक क्रियाशील रहते हैं अतः नाइट्रोजन का यौगिकीकरण अच्छी प्रकार से होता है । फॉस्फोरस जैविक पदार्थ से मिलकर इस प्रकार यौगिक बनाता है कि अगली फसल को फॉस्फोरस सुगमता से उपलब्ध हो जाता है ।

5. सिंचाई – सिंचित क्षेत्रों में आवश्यकतानुसार फसल की सिंचाई करें । यदि सिंचाई से साधन उपलब्ध न हो तो वर्षा ऋतु में ही हरी खाद की फसल की बुआई करें ।

6. फसल को खेत में पलटना – फसल की एक विशेष अवस्था पर पलटाई करने से भूमि को अधिकतम नाइट्रोजन व जीवांश पदार्थ मिलते हैं । फसल में जब पुष्पन प्रारम्भ हो जाये तथा उसकी टहनियाँ कोमल , रसीली , बिना रेशेदार और उस पर अधिकतम पत्तियाँ हो तब पलटना चाहिए । खरीफ में फसल को पलटने का कार्य अगस्त के प्रथम सप्ताह में कर लेना चाहिए । सामान्यतः ढेंचा तथा सनई को क्रमशः 45 व 50 दिन बाद पलटते हैं । हरी खाद की फसल में पाटा चलाकर फसल को गिरा देते है । तत्पश्चात् मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को खेत में दबा देते है । बलुई मृदाओं में फसल को गहराई तक तथा भारी मृदाओं में कम गहराई पर दबाते हैं । शुष्क मौसम की दशा मे फसल को गहराई पर तथा आर्द्र मौसम में कम गहराई पर दबाते है ।

7. हरी खाद का अपघटन – हरी खाद से प्राप्त जीवांश पदार्थ के पूर्ण अपघटन में सूक्ष्म जीवाणुओं का बड़ा महत्व है । ये सूक्ष्म जीवाणु पहले हरे पदार्थो को सड़ाकर अमोनीकरण करते हैं और अन्त में नाइट्रेट को सुलभ अवस्था में उपलब्ध कराते हैं ।

8. हरी खाद की पलटाई और आगामी फसल में अन्तराल – हरी खाद की फसल को खेत में पलटने और आगामी फसल के मध्य अन्तर जीवांश पदार्थ के अपघटन पर निर्भर करता है । सामान्यतः हरी खाद की पलटाई के डेढ़ – दो माह बाद अगली फसल की बुआई करते हैं ।

 

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