बैंगन
बैंगन की खेती लगभग पूरे वर्ष की जाती है । इसकी खेती प्रदेश के सभी जिलों में होती है । यह मधुमेह रोगियों के लिए लाभप्रद है ।
जलवायु एवं भूमि –
इसकी अच्छी फसल के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है । पाले का अधिक असर पड़ता है । अतः बसंतकालीन फसल उन क्षेत्रों में नहीं लेनी चाहिए जहाँ पाला पड़ता है । बैंगन की खेती के लिए दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी गई है । भूमि में भुरभुरापन व जल निकास अच्छा होना चाहिए । .
उन्नत किस्में –
किस्मों का चुनाव बाजार की मांग व लोकप्रियता के आधार पर करना चाहिए । इसमें दो प्रकार की किस्में पाई जाती हैं – लम्बे व गोल बैंगन ।
• लम्बेफल – पूसा परपल लोंग , पूसा परपल क्लस्टर , पूसा कांति , पन्त सम्राट , आजाद कांति , एस -16 , पंजाब सदाबहार , ए आर यू – 2 – सी , एच -7 आदि ।
• गोल फल – पूसा परपल राउण्ड , एच -4 , पी -8 , पूसा अनमोल , पन्त ऋतुराज , टी -3 , एच -8 , डीबीएसआर -31 , पीबी – 91-2 , के – 202-9 , डीबीआर -8 , ए बी -1 आदि ।
• छोटे गोल फल – डीबीएसआर -44 , पी एल आर -1
• संकर किस्में – अर्का नवनीत , पूसा हाइब्रिड -6 , पूसा हाइब्रिड -2
नर्सरी तैयार करना –
एक हैक्टेयर की पौध तैयार करने के लिये एक मीटर चौड़ी तथा 3 मीटर लम्बी | लगभग 15 से 20 क्यारियों की आवश्यकता होती है । बुवाई से पूर्व बीजों को थाइरम या | केप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें । अगर सूत्रकृमि रोग की समस्या हो तो 8 से 10 ग्राम कार्बोफ्यूरान 3 जी प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में | मिलावें । नर्सरी में बीजों की बुवाई 5 सेमी के अंतराल पर कतारों में करें । नर्सरी की क्यारियां भूमि से 10-15 सेमी ऊँची बनानी चाहिए । एक हैक्टेयर में पौध रोपाई के लिए 400-500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है ।
खेत की तैयारी व खाद एवं उर्वरक –
नर्सरी में बीज बोने के साथ – साथ खेत की तैयारी भी शुरू कर देनी चाहिए । खेत की 3-4 जुताई करें । प्रति हेक्टर 120 से 150 क्विंटल सड़ी हुई गोबर या कम्पोस्ट की खाद अच्छी तरह मिला कर जुताई करें । अंतिम जुताई से पूर्व 40 किलो नत्रजन , 80 किलो फॉस्फोरस तथा 60 किलो पोटाश को प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में समान रूप से मिला कर उचित आकार की क्यारियां बना लेवें । संकर किस्मों में 60 किलो नत्रजन अंतिम जुताई के समय देवें तथा फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा पूर्ववत रखें । पौध रोपण के 20 दिन बाद तथा फूल लगने के समय 20-20 किलो नत्रजन का छिड़काव फसल पर दो बार करना चाहिए । संकर किस्मों में यह मात्रा 30-30 किलो रखें ।
बुवाई का समय –
बैंगन की फसल वर्ष में तीन बार ली जा सकती है ।
फसल | नर्सरी तैयार करने का समय | खेत में रोपाई का समय |
वर्षा कालीन | फरवरी - मार्च | मार्च - अप्रैल |
शरद कालीन | जुन - जुलाई | जुलाई - अगस्त |
बसंत कालीन | सितम्बर | अक्टूबर - नवम्बर |
पौध की रोपाई एवं दूरी –
जब पौध की लम्बाई 10 से 15 सेमी हो जावें तब उन्हे सावधानी से निकाल कर तैयार खेत में शाम के समय रोपाई करें । कतार से कतार की दूरी 60-70 सेमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी रखें ।
सिंचाई –
गर्मी की ऋतु में 4 से 5 दिन के अन्तराल पर तथा सर्दी की ऋतु में 10 से 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए । वर्षा ऋतु में सिंचाई आवश्यकतानुसार करें । ड्रिप सिंचाई पद्वति का प्रयोग करने पर ड्रिप को दूसरे दिन 30 से 60 मिनट तक चलाना चाहिए ।
पौध संरक्षण
कीट प्रबंध –
• हरा तेला , मोयला , सफेद मक्खी एवं जालीदार पंख वाली बग – ये कीड़े पत्तियों के नीचे या पौधों के कोमल भाग से रस चूस कर पौधों को कमजोर कर देते हैं इससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । ये कीट विषाणु फैलाने में भी सहायक होते हैं । इसके नियंत्रण के लिये एक मिलीलीटर डाइमिथोएट ( 30 ई सी ) या मैलाथियॉन ( 50 ई सी ) या इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें ।
• हाड़ा ( एपीलेक्ना ) बीटल – इस कीट का प्रकोप प्रायः सिमित होता है । इसके नियंत्रण के लिये मैलाथियॉन 5 प्रतिशत चूर्ण का 20 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें ।
• फल एवं तना छेदक – इस कीट के आक्रमण से बढ़ती हुई शाखाएँ मुरझा कर नष्ट हो जाती हैं । फलों में छेद हो जाते हैं जिससे फलों की गुणवत्ता कम हो जाती है । नियंत्रण हेतु प्रभावित शाखाओं एवं फलों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए । फल बनने पर क्युनालफॉस 2 मिलीलीटर या एसीफेट 75 एस पी 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़कें । आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन बाद छिड़काव दोहरायें । दवा छिड़कने व फल तोड़ने में 7-10 दिन का अंतर होना चाहिए ।
व्याधि प्रबंध
• छोटी पत्तीरोग – यह बैंगन का माइकोप्लाज्मा जनित विनाशकारी रोग है । इस रोग के प्रकोप से पत्तियां छोटी रह जाती हैं तथा गुच्छे के रूप में तनों के ऊपर उगी हुई दिखाई देती हैं । पूरा रोगी पौधा झाड़ीनुमा लगता है व ऐसे पौधों पर फल नहीं बनते हैं । नियंत्रण हेतु रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए । यह रोग हरे तेले द्वारा फैलता है अतः इसकी रोकथाम हेतु 0.5 मिलीलीटर फास्फोमिडान 85 एस एल या एक मिलीलीटर डाइमिथोएट 30 ई सी प्रति लीटर का छिड़काव करें एवं आवष्यकतानुसार यह छिड़काव 15 दिन बाद दोहरायें ।
• झुलसा रोग- पत्तियों पर भूरे व गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं । धब्बों में छल्लेनुमा जालियाँ दिखने लगती हैं । नियंत्रण हेतु मेन्कोजेब या जाइनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें । यह छिड़काव आवष्यकतानुसार 10 से 15 दिन के अंतराल पर दोहरावें ।
• आर्द्र गलन रोग- यह रोग पौधों की छोटी अवस्था में होता है । इसके प्रकोप से जमीन की सतह पर स्थित पौधे का भाग काला पड़कर कमजोर पड़ जाता है तथा पौधे गिरकर मरने लगते हैं । यह रोग भूमि एवं बीज के माध्यम से फैलता है । नियंत्रण हेतु प्रति किलोग्राम बीजों को 3 गग्रम केप्टान अथवा थाइरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें । नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम या केप्टान 4 से 5 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की दर से भूमि में मिलावें | क्यारियाँ आस – पास की भूमि से 4 से 6 इंच उठी हुई बनावें ।
तुड़ाई एवं उपज –
जब फसल बाजार में भेजने लायक हो जावे तब फलों की तुड़ाई करें । इसकी उपज लगभग 200 से 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है जबकि संकर किस्मों से 350 से 400 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है ।
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