मृदा क्षरण एवं संरक्षण : परिभाषा, प्रकार, मृदा क्षरण को रोकने की विधियाँ

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मृदा क्षरण एवं संरक्षण ( Soil Erosion and Conservation )

 

मृदा क्षरण ( Soil Erosion ) : भौतिक रूप से मिट्टी के कणों का अपने स्थान से हटने की क्रिया को मृदा क्षरण कहते हैं । मृदा का पृथक्करण तथा परिवहन मृदा क्षरण कहलाता है।

अधिकांश दशाओं में जल परिवहन कारक होता है लेकिन हवा भी यह कार्य करती है ।

मृदा संरक्षण ( Soil Conservation ) : मृदा को विभिन्न क्षरण शक्तियों द्वारा बहने तथा कटने से बचाने की क्रिया को मृदा संरक्षण कहते हैं ।

प्रति वर्ष कुछ प्राकृतिक शक्तियों , मुख्य रूप से जल एवं वायु द्वारा मृदा की ऊपरी परत बहकर या उड़कर दूसरे स्थानों पर स्थानान्तरित होती रहती है । इसके साथ ही पेड़ – पौधे जितना पोषक पदार्थ मृदा से अपने भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं उसका कई गुना अधिक पोषक पदार्थ मृदा से बहकर या उड़कर नष्ट हो जाता है । इसलिए मृदा क्षरण को रोकने के लिए मृदा का संरक्षण किया जाना चाहिए ताकि पौधों को मृदा से आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति होती रहे तथा मृदा उर्वरा शक्ति भी बनी रहे ।

 

मृदा क्षरण के प्रकार : प्रकृति में दो प्रकार से मृदा क्षरण होता है –

1. प्राकृतिक क्षरण ( Natural erosion ) : वनस्पति से ढकी हुई मृदा के प्राकृतिक रूप से हवा तथा जल द्वारा लगातार और धीरे – धीरे क्षरण को प्राकृतिक क्षरण कहते हैं ।

यह क्षरण मृदा निर्माण तथा मृदा विनाश की क्रियाओं में सदैव साम्य रखता है । इससे कोई विशेष हानि नहीं होती क्योंकि परिवर्तन में बहुत समय लगता है । इस क्षरण को मनुष्य द्वारा नहीं रोका जा सकता है ।

 

2. त्वरित क्षरण ( Accelerated erosion ) : जब भूमि की वनस्पति को पशुओं द्वारा चराकर , खोदकर या जोतकर समाप्त कर दिया जाता है तो भूमि वनस्पति – विहीन हो जाती है । ऐसी मिट्टी में पानी व हवा के विघ्न द्वारा अलग होने की गति मृदा निर्माण से कहीं ज्यादा होती है । इस प्रकार के मृदा क्षरण को त्वरित क्षरण कहते हैं ।

 

मृदा क्षरण दो शक्तियों के द्वारा होता है – 1. जल 2. वायु

1. जल द्वारा क्षरण ( Water Erosion ) – आवरण रहित नग्न भूमि पर जब वर्षा की बूँदें गिरती हैं तो उनकी चोट से मृदा कण तितर – बितर हो बिखर जाते हैं और गंदले पानी के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते हैं । इस प्रकार खेत की उपजाऊ मिट्टी का जल के साथ क्षरण हो जाता है । जल द्वारा मृदा के कटने व बहने की क्रिया को जलीय क्षरण कहते हैं ।

जल द्वारा मृदा क्षरण निम्न प्रकार का होता है –

( अ ) बौछार क्षरण ( Splash erosion ) : यह मृदा क्षरण की प्रारम्भिक अवस्था है । जब वर्षा की बूँदें जमीन पर गिरती हैं तो ये मृदा कणों को मूल स्थान से छिन्न – भिन्न कर देती हैं । इससे भूमि की जल प्रवेश क्षमता भी कम हो जाती है । यह क्षरण वर्षा की बूँदों के आकार एवं गहनता से प्रभावित होता है ।

( ब ) परत क्षरण ( Sheet erosion ) : बूंदों द्वारा कणों के बिखरने के पश्चात् वर्षा का जल पूर्ण सतह पर मिट्टी की पतली तह को अपने साथ बहा ले जाता है । इस प्रकार खेत की उपजाऊ मृदा की ऊपरी तह समान रूप से खेत से बह जाती है । इसको परत – क्षरण कहते हैं । यह क्षरण आँखों से तो दिखाई नहीं देता है लेकिन होता बहुत हानिकारक है ।

( स ) रिल क्षरण ( Rill erosion ) : परत क्षरण समतल भूमि में होता है लेकिन पूरा खेत बिल्कुल समतल तो होता नहीं , उसमें कहीं न कहीं ढाल जरूर होता है । जब पानी ढाल की ओर बहने लगता है तो खेत में छोटी – छोटी नालियाँ बन जाती हैं । ये नालियाँ धीरे – धीरे चौड़ी होने लगती हैं , हालांकि ये नालियाँ जुताई के समय समाप्त हो जाती हैं । नर्म व तुरन्त जोते गये खेत में यह क्षरण ज्यादा होता है । ढलान वाली व खाली भूमि में भी यह क्षरण ज्यादा होता है ।

( द ) अवनालिका क्षरण ( Gully erosion ) : यह रिल – क्षरण की बढ़ती अवस्था है । जब ढाल अधिक होता है तो रिल क्षरण द्वारा बनायी गई नालियाँ इतनी चौड़ी और गहरी हो जाती हैं कि उपजाऊ मिट्टी के कटने के बाद अधो मृदा भी कटने लगती है । इस प्रकार के कटाव को अवनालिका या नालीदार क्षरण कहते हैं । ये नालियाँ साधारण जुताई आदि के द्वारा समाप्त नहीं होती हैं । इन मृदाओं में कृषि कार्य करना कठिन होता है ।

 

जलीय क्षरण को प्रभावित करने वाले कारक –  

1. जलवायु ( Climate ) : वर्षा की गहनता , अवधि तथा आवृत्ति का मृदा क्षरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है । यदि वर्षा की गहनता कम हो तो ज्यादा समय तक वर्षा होने पर भी क्षरण कम होता है । इसी प्रकार गहनता के साथ थोड़े समय में होने वाली वर्षा से भी क्षरण अधिक नहीं होता है । यदि वर्षा की मात्रा और गहनता दोनों ही अधिक हो तो मृदा क्षरण अधिक होगा । अधिक तापक्रम मूल पदार्थों के रासायनिक एवं भौतिक अपक्षय में सहायक होता है जिससे भूमि तथा चट्टानों में टूट – फूट होती हैं । इस कारण क्षरण शुरू हो जाता है ।

2. स्थलाकृति ( Topography ) : ढालू भूमि पर क्षरण ज्यादा होता है , क्योंकि पानी के बहने की गति तेज होती है। उसकी मिट्टी काटने व बहाने की शक्ति बढ़ जाती है । अधिक ढाल पर जल को भूमि में सोखने का कम समय मिलता है । ढाल की लम्बाई जितनी ज्यादा होगी उतना ही कटाव ज्यादा होगा ।

3. मृदा गुण ( Soil characteristics ) : बलुई मृदा के कणों का बिखराव ज्यादा होता है , जबकि मटियार भूमि के कण आपस में अधिक दृढ़ता के साथ चिपके रहते हैं । ऊसर भूमि पानी में शीघ्र घुल जाती है और पानी के साथ बह जाती है । बलुई मृदा पानी को कम सोख पाती है । लेकिन मटियार भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होने से जल शोषण क्षमता और कणों को बाँधने की क्षमता बढ़ जाती है , जिससे पानी के बहाव द्वारा कम कटती है ।

4. वनस्पति का प्रभाव ( Plant effect ) : जितने अधिक पेड़ – पौधे उतना ही अधिक जल मिट्टी द्वारा सोखा जायेगा । पेड़ व घास की जड़ें मृदा कणों को आपस में बाँधे रखती हैं और पत्तियाँ वर्षा की बूँदों को मृदा कणों से टकराने से पहले ही रोक देती हैं । इस प्रकार वनस्पति भूमि क्षरण को कम करने में सहायक होती है ।

5. मानवीय कारक ( Human factor ) : मनुष्य द्वारा खेती का सही ढंग न अपनाने से भी मृदा क्षरण अधिक होता है । ढालू भूमियों पर ढाल की दिशा में कृषि कार्य करना , नदी किनारे तक खेती करना , खाद का प्रयोग किये बिना लम्बे समय तक एक ही फसल उगाना आदि ऐसे मानवीय कारक हैं , जो जलीय क्षरण को बढ़ावा देते हैं ।

 

 

जलीय क्षरण को रोकने की विधियाँ : वे विधियाँ जो भू – क्षरण रोकने तथा जल संरक्षण के लिए अपनायी जाती हैं , मृदा संरक्षण विधियाँ कहलाती हैं । वे मुख्यतया निम्न हैं –

1. मृदा संरक्षण की जैविक विधियाँ ( Biological methods ) – 

( अ ) सस्य सम्बन्धी विधियाँ ( Agronomic methods ) –

1. समोच्च खेती ( Contour farming ) : समान ऊँचाई की भूमि पर बनी हुई रेखा को कन्टूर कहते हैं । समस्त कृषि कार्य और फसलों की बुआई ढाल के विपरीत करते हैं । यदि ढाल अधिक है तो कन्टूर की दूरी कम होगी और यदि ढाल कम हो तो कन्टूर के आपस की दूरी अधिक हो सकती है । ढालू जमीन पर कन्टूर बनाने से वर्षा का पानी रूक – रूक कर आगे बढ़ता है जिसे मृदा द्वारा सोख लिया जाता है और बाहर कम बह पाता है । अतः मृदा क्षरण नहीं होता है ।

2. भू – परिष्करण ( Tillage ) : भू – परिष्करण की सही विधियाँ और औजारों के अपनाने से मृदा की संरचना ठीक हो जाती है । बारानी क्षेत्रों में गहरी जुताई करनी चाहिए ताकि खरपतवार नष्ट हो जाये तथा मृदा में पानी का शोषण अधिक हो । इससे भू – क्षरण कम हो पाता है ।

3. पलवार ( Mulching ) : खेत को घास तथा पौधों के डंठलों द्वारा ढक कर मृदा क्षरण को काफी कम किया जा सकता है । पलवार वर्षा की बूँदों का मृदा पर सीधे प्रहार को कम करता है तथा जड़ें , तने , पत्तियाँ आदि मृदा की सतह पर पानी बहने के वेग को कम करते हैं । साथ ही मृदा संरचना को भी सुधारते हैं ।

4. फसल चक्र ( Crop rotation ) : मृदा संरक्षण के लिए अपनाये गये फसल चक्रों में यह सिद्धान्त रखा जाता है कि अधिकाधिक समय तक घास एवं दलहनी फसलों के मिश्रण से भूमि को आच्छादित रखा जाये । उपयुक्त फसल चक्र अपनाने से क्षरण कम होता है । जल का अच्छा संरक्षण हो जाता है और मिट्टी का उपजाऊपन भी सुधरता है ।

5. पट्टियों में फसल बोना ( Sowing of crops in strips ) : इस प्रणाली में फसलें ढाल के विपरीत समानान्तर पट्टियों में भू – क्षरण अवरोधी ( घनी उगने वाली फसलें ) तथा निराई – गुड़ाई चाहने वाली फसलें एकान्तर पट्टियों में उगायी जाती हैं । जिससे ऊपर से बहकर आयी मिट्टी और पानी रूकते रहते हैं और क्षरण नहीं हो पाता है ।

 

( ब ) घास सम्बन्धी उपाय ( Grass related measures ) –  उगायी गई क्षेत्रीय फसलों के मध्य घास की पट्टियाँ बो देने से मृदा संरक्षण में मदद मिलती है । फसल चक्र में अन्य फसलों के साथ घास को भी उगाने की विधि को ले फार्मिंग ( Lay farming ) कहते हैं । यह विधि मृदा एवं जल संरक्षण में सहायक होती है । अगर बड़े क्षेत्र में क्षरण की समस्या हो तो उर्वरकों की उपयुक्त मात्रा डालते हुए कुछ समय तक घासें ही उगानी चाहिए । मुख्य घासें ब्लू पैनिक , नेपियर , दूब , अंजन आदि हैं ।

( स ) वृक्षारोपण ( Tree plantation ) – वृक्ष मृदा क्षरण के रोकने के अच्छे साधन हैं । वृक्ष वर्षा की बूँदों को सीधे जमीन पर नहीं गिरने देते तथा पानी की चोट को स्वयं सहन करते हैं । जमीन पर पानी के बहाव को रोकते हैं । वृक्षों की पत्तियाँ मल्च का काम करती हैं और भूमि को जीवांश भी प्रदान करती हैं जिससे मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है ।

 

2. मृदा संरक्षण की यांत्रिक विधियाँ ( Mechanical methods ) –

( अ ) क्यारी या थाला बनाना : बेसिन लिस्टर ( Basin lister ) की सहायता से कन्टूर के समानान्तर थालों का निर्माण करते हैं यह थाला जल को रोककर उसके बहाव की गति कम कर देता है और जल संरक्षण में सहायक होता है ।

( ब ) अधो – भूमि की गहरी जुताई : सब सोइलर ( Sub soiler ) की सहायता से कठोर परत को तोड़कर मृदा की जल शोषित एवं जल धारण क्षमता को बढ़ाते हैं जिससे वर्षा के जल का संरक्षण किया जा सकता है ।

( स ) कन्टूर टैरेस बनाना : जब ढालू भूमि पर खेती की जाती है तो खेत टैरेस या चबूतरे की भांति बनाये जाते हैं जिससे जुताई , बुआई आदि बराबर टुकड़ों पर हो सके । ये टैरेस बहाव को सीधा ढाल की ओर रोकते हैं , जल शोषण को बढ़ाते हैं , अतिरिक्त जल को नाली द्वारा बाहर निकाल देते हैं , अधिक ढालू भूमि को खेती योग्य बनाते हैं तथा मृदा क्षरण को नियंत्रित करते हैं ।

( द ) कन्टूर खाई बनाना : 60 से.मी. चौड़ी , 30 से.मी. गहरी तथा उपयुक्त लम्बाई की खाइयाँ उचित अन्तराल पर खोदी जाती हैं इन खाइयों में पेड़ों की रोपाई की जाती है ।

 

2. वायु द्वारा क्षरण ( Wind Erosion ) – तेज हवा या आँधी से मृदा कण एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचने की क्रिया को वायवीय क्षरण कहते हैं ।

यह क्षरण शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों से ज्यादा होता है जहाँ वनस्पति नहीं के बराबर पाई जाती है । राजस्थान का उत्तर – पश्चिमी क्षेत्र मरूस्थल के रूप में होने से वर्षा बहुत कम होती है और प्राकृतिक वनस्पति का अभाव है । मार्च से जून तक तेज हवाएँ चलती हैं जिनके कारण यह क्षेत्र वायु क्षरण से प्रभावित है । जो वनस्पति है भी , उस पर अनियंत्रित व अत्यधिक पशुओं की चराई व कृषि के गलत तरीके अपनाने से यह समस्या बढ़ती ही जा रही है । इस क्षरण द्वारा लाखों टन उपजाऊ मिट्टी उड़कर बाहर चली जाती है और मृदा उर्वरता का ह्रास हो जाता है ।

वायु द्वारा मृदा का परिवहन तीन प्रकार से होता है –

( अ ) उच्छलन ( Saltation ) : जब हवा का सीधा दबाव मृदा कणों पर पड़ता है तो मुख्यतः 0.1 से 0.5 मि.मी. व्यास वाले कण अपने स्थान से ऊपर उछलने लगते हैं और थोड़े चलकर नीचे गिर जाते हैं । मृदा कणों के इस तरह छोटे – छोटे उछालों की क्रिया को उच्छलन कहते हैं । मृदा क्षरण में भार की दृष्टि से 50-75 प्रतिशत भाग इस क्रिया द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है ।

( ब ) निलम्बन ( Suspension ) : इस क्रिया में मृदा के और भी छोटे कण जिनका व्यास 0.1 मि.मी. यो इससे कम होता है , हवा के साथ उड़कर वातावरण में लटके रहते हैं और हवा की गति के साथ हजारों कि.मी. दूर तक स्थानान्तरित हो जाते हैं ।

( स ) सतह – सर्पण ( Surface creep ) : मृदा कण जिनका व्यास 0.5 मि.मी. से अधिक होता है जो वायु की गति के साथ ऊपर नहीं उठ सकते हैं , भूमि सतह पर रेंगकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित हो जाते हैं । इस क्रिया को सतह – सर्पण कहते हैं ।

 

वायु द्वारा मृदा क्षरण को प्रभावित करने वाले कारक –

1. जलवायु ( Climate ) : शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में जहाँ कम वर्षा , अधिक ताप व वायु की गति तेज हो तो वायु क्षरण अधिक होगा । इसके विपरीत आर्द्र एवं शीतोष्ण जलवायु में वायु क्षरण कम होता है ।

2. मृदा ( Soil ) : मृदा के भौतिक गुण जैसे कणाकार , घनत्व तथा कार्बनिक पदार्थ की मात्रा , नमी की मात्रा आदि वायु द्वारा क्षरण को प्रभावित करते हैं । क्ले मृदाओं में जीवांश की मात्रा अधिक होने व चिकनी सतह के कारण क्षरण कम होता है । लेकिन बलुई मृदाओं की सतह खुरदरी व कण एक – दूसरे से अलग रहते हैं । अतः वायु द्वारा क्षरण अधिक होता है ।

3. वनस्पति ( Vegetation ) : वनस्पति से आच्छादित मृदाओं में वायु क्षरण नहीं के बराबर होता है लेकिन वनस्पतिविहीन मृदाओं में क्षरण अधिक होता है ।

4. स्थलाकृति ( Topography ) : ढालू भूमियों में समतल भूमियों की अपेक्षा मृदा क्षरण अधिक होता है ।

 

वायवीय क्षरण नियंत्रण के सिद्धान्त – 

वायु द्वारा मृदा क्षरण रोकने के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

1. वायु के वेग को कम करना ,

2. मृदा कण समूह का आकार बढ़ाना , तथा

3. मृदा सतह को नम रखना ।

उपर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर वायवीय क्षरण को निम्नलिखित विधियों द्वारा रोका जा सकता है –

1. कृषि क्रियाएँ :

( i ) मृदा में जीवांश खादों का प्रयोग करना चाहिए ।

( ii ) मृदा में हरी खाद वाली फसलों का प्रयोग करना चाहिए , क्योंकि ये फसलें उर्वरता बढ़ाने , कणों को बाँधकर रखने तथा नमी की मात्रा संचित रखने में सहायक होती हैं ।

( iii ) मृदा सतह पर पलवार ( Mulch ) का प्रयोग करना चाहिए ।

( iv ) फसल चक्र ( Crop rotation ) में दाल वाली फसलें तथा घासों को सम्मिलित करना चाहिए , क्योंकि ये मृदा संरक्षी फसलें हैं जो मृदा क्षरण को कम करती हैं ।

( v ) भूमि को पड़ती नहीं छोड़ना चाहिए ।

( vi ) पशुओं की चराई बन्द कर देनी चाहिए , ताकि भूमि पर घास हमेशा बनी रह सकें ।

( vii ) भू – परिष्करण ( Tillage ) द्वारा मृदा वाष्पीकरण कम करके नमी बनाये रखनी चाहिए ।

2. वायुरोधी वृक्ष पट्टियाँ :

वायु की गति मन्द करने के लिए जिस दशा से हवायें आती हैं उनके समकोण विपरीत दिशा में वृक्षों , झाड़ियों तथा घासों की सुनियोजित पट्टियाँ लगाते हैं । ये पट्टियाँ मृदा क्षरण को काफी कम कर देती हैं और सतह से वाष्पीकरण को रोकती हैं । इनकी कई आकृतियाँ हो सकती हैं लेकिन सबसे अच्छी पट्टी पिरेमिड आकार की होती है । जिसमें अन्दर की लाइन में शीघ्र बढ़ने वाले , दूसरी लाइन में कम बढ़ने वाले व तीसरी लाइन में सबसे कम बढ़ने वाले पेड़ या घासें होती हैं । इस प्रकार हवा आने की दिशा में छोटे वृक्ष , बीच में थोड़े बड़े व हवा जाने वाली दिशा में सबसे बड़े वृक्ष लगाये जाते हैं । पट्टियों की आपस में दूरी 3-4 मीटर एवं पेड़ से पेड़ की दूरी 1-2 मी . रखी जाती है । सघनता को ध्यान में रखते हुए पट्टियों में वृक्षों की ऐसी जातियाँ जिनमें कम से कम वायु निकल सके , प्रयोग में लाई जाती हैं । इसके लिए बबूल , नीम , शीशम , जामुन , इमली , बेर , अमलताश आदि प्रमुख वृक्ष हैं ।

3. मिट्टी के टीलों को आच्छादित रखना :

मिट्टी के टीलों पर क्षेत्रीय झाड़ियाँ लगा देनी चाहिए जो कि पलवार ( Mulch ) का काम करती हैं तथा मिट्टी के उड़ने में बाधा डालती हैं जिससे टीले एक ही जगह स्थिर रहते हैं । उदाहरण के लिए खीप , झड़बेरी , फोग , बुई आदि झाड़ियाँ उपयोगी पाई गयी हैं ।

4. अन्य : रेगिस्तानी क्षेत्र में उगने वाले पेड़ , झाड़ियाँ तथा घासें वायु क्षरण रोकने में सहायक हैं –

वृक्ष ( Trees ) – 

खेजड़ी ( Prosopis cineraria )

शीशम ( Dalbergia sissoo )

रोहिड़ा ( Tecomella undulata )

विलायती बबूल ( Prosopis juliflora )

इज़राइली बबूल ( Acacia tortilis )

 

झाड़ियाँ ( Shrubs ) –

खींप ( Leptadenia pyrotechnica )

फोग ( Calligonum polygonoides )

अरण्डी ( Ricinus communis )

झरबेरी ( Ziziphus rotundifolia )

 

घासें ( Grasses ) – 

सेवन ( Lasiurus sindicus )

अंजन घास ( Cenchrus ciliaris )

 

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