लाइकेन या शैक ( Lichens ) : लाइकेन के प्रकार , लाइकेन का आर्थिक महत्त्व

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लाइकेन या शैक ( Lichens ) –

शैवाल तथा कवक परस्पर मिलकर लाइकेन का निर्माण करते हैं । इसमें दोनों घटक एक – दूसरे को सहयोग करके जीवित रहते हैं । इस प्रकार के जीवन को सहजीवन (symbiosi)  कहते हैं । कवक अपने अधस्तर (substratum) द्वारा वातावरण से जल एवं खनिज लवण अवशोषित करके शैवाल को उपलब्ध कराते हैं । शैवाल इन पदार्थों की सहायता सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश – संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण करके कवक को देते हैं । अतः लाइकेन्स में सहजीविता का एक उत्तम उदाहरण मिलता है । लाइकेन्स के शरीर का अधिकांश भाग का निर्माण कवक द्वारा होता है जिसे माइकोबायोन्ट (mycobiont)  कहते हैं । कवक एस्कोमाइसिटीज या बैसिडियोमाइसिटीज वर्ग के सदस्य होते हैं । कवक जाल के बीच मिक्सोफाइसी या क्लोरोफाइसी वर्ग के सदस्यों में से कोई भी एक शैवाल हो सकता है जिसे फाइकोबायोन्ट ( Phycobiont ) कहते हैं । लाइकेन किसी आधार के साथ अपनी निचली सतह से निकले मूलिका या ‘ राइजीन ‘ (Rhizines) की सहायता से चिपके रहते हैं। राइजीन एकल , शाखित या अशाखित समानान्तर रूप से व्यवस्थित अनेक कवक सूत्र होते हैं । लाइकेन के थैलस दो तलों पर पृष्ठ व अधर में विभेदित होता है । पृष्ठ तल गहरे भूरे या हल्के भूरे रंग का जबकि अधर तल काले रंग का होता है । लाइकेन थैलस (thallus) की आन्तरिक संरचना जटिल होती है । आन्तरिक रूप से थैलस ऊपरी वल्कुट , शैवाल क्षेत्र , मज्जा क्षेत्र एवं निचला वल्कुट आदि क्षेत्रों में विभेदित होता है ।    

             लाइकेन में कायिक जनन , खण्डन एवं विशिष्ट संरचनाओं जैसे सोरिडिया इसिडिया आदि द्वारा होता है । लाइकेन में लैंगिक जनन करना पूर्णतः कवकों पर निर्भर है । इसमें लाइकेन का सहयोगी कवक अगर ऐस्कोमाइसिटिज का सदस्य है तब लैंगिक जनन ऐस्कोबीजाणुओं द्वारा होता है । इन बीजाणुओं का निर्माण ऐस्काई ( Asci ) में होता है । ऐस्काई फलनपिंडों में निहित होती है । जिन्हें ऐपोथिसियम कहते हैं । नर जननांग स्पोरोगोनियम एवं मादा जननांग कार्पोगोनियम कहलाते हैं । 

 

लाइकेन के प्रकार ( Types of Lichens ) –

बाह्य आकारिकी के आधार पर लाइकेनों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा गया है –

1. पर्पटीमय लाइकेन ( Crustose lichen ) – इस प्रकार के लाइकेन का थैलस चपटा व कठोर होता है । इसकी निचली सतह अधोस्तर पर पपड़ी की जैसे घनिष्ठ रूप से चिपकी रहती है । थैलस पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से अधोस्तर पर निमग्न होता है । इनमें फलनपिण्ड थैलस की ऊपरी सतह पर पाये जाते हैं । उदाहरण – ग्रैफिस (Graphis) , लोकेनोरा ( Locenera ) , लेसीडिया (Lacedia) , राइजोकार्पोन (Rhizocarpon) व हीमोटोमा (Hematoma) आदि ।

2. पर्णिल लाइकेन ( Foliose lichen ) – ये थैलस चपटे , फैले हुए तथा पत्तियों की भाँति पालित व कटावदार होते हैं । पर्पटीमय लाइकेन की भाँति इनकी सम्पूर्ण निचली सतह आधार से चिपकी नहीं होती है । इनकी निचली सतह से मूलाभास सदृश तन्तुरूपी उद्वर्ध निकलते हैं जिन्हें राइजीन (Rhizines) कहते हैं । इनकी सहायता से थैलस अधोस्तर पर चिपका होता है । उदाहरण – पारमेलिया ( Parmelia ) व गायनोफोर ( Gynophore ) आदि ।

3. फलयुक्त अथवा क्षुपिल लाइकेन ( Fruticose lichen ) – इनका थैलस सुविकसित , क्षुपिल ( Shrub – like ) बेलनाकार तथा शाखित होता है । इनकी चपटी , फीतानुमा अथवा बेलनाकार शाखाओं की ऊर्ध्व वृद्धि होती है अथवा वे वृक्षों के स्तम्भों से नीचे लटकी रहती हैं । इस प्रकार के लाइकेन अधोस्तर पर एक आधारी श्लेष्मक बिम्ब की सहायता से चिपकते हैं । उदाहरण – क्लैडोनिया ( Cladonia ) एवं अस्निया ( Usnea ) आदि।

 

 

लाइकेन का आर्थिक महत्त्व ( Economic importance of Lichen ) – 

  • शैल अनुक्रमण ( Lithosere ) की प्रक्रिया में विभिन्न पर्पटीमय लाइकेन पुरोगामी वनस्पति ( pioneer vegetation ) के रूप में उत्पन्न होते हैं तथा ये अनुक्रमण (succession) की प्रक्रिया को प्रारम्भ करते हैं । उदाहरण – लेसीडिया ( Lecidia ) राइजोकार्पोन ( Rhizocarpon ) आदि लाइकेन शैल – अनुक्रमण की प्रक्रिया के पुरोगामी प्रजातियों का कार्य करती हैं । लाइकेन वायु प्रदूषण के सूचक ( air pollution indicator ) होते हैं । SO , की उपस्थिति को ये सहन नहीं कर सकते व , इसकी मृत्यु हो जाती है ।
  • भोजन एवं चारे के रूप में ( Food and fodder ) – प्राचीन काल से ही लाइकेन का उपयोग भोजन में किया जाता रहा है । उत्तर ध्रुवीय टुण्ड्रा तथा पूर्वी साइबेरिया प्रदेशों में लाइकेन वनस्पति आहार का मुख्य अंग है । लीकेनोरा , पारमेलिया , अम्बीलीकेरिया आदि कुछ लाइकेन विश्व के विभिन्न भागों में भोजन के रूप में प्रयोग किये जाते हैं । दक्षिण भारत में पारमेलिया की जातियाँ जिन्हें शिलापुष्प कहते हैं , खायी जाती हैं । लाइकेन में लाइकेनिन ( lichenin ) नामक कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है । इसमें सत्य स्टार्च तथा सेलुलोस का अभाव होता है । यीस्ट ( yeast ) के आविष्कार से पूर्व मिस्र के निवासी एवर्निया का प्रयोग बेकिंग उद्योग ( baking Industry ) में करते थे । जापान में एण्डोकॉर्पोन सब्जी के रूप में खाया जाता है। एस्पीसीलिया कैलकेरिया ( Aspicilia calcarea ) , लीकेनोरा , सैक्सीकोला आदि लाइकेन्स की कुछ जातियाँ अनेक कीटों , जैसे – घोंघा तथा इल्ली , दीमक द्वारा भोजन के रूप में प्रयोग की जाती हैं । लाइकेनों को पानी में भिगोने से इनमें उपस्थित कड़वे यौगिक दूर हो जाते हैं तथा अकाल की परिस्थितियों में इनका उपयोग चारे के रूप में किया जाता है । लोबेरिया , एवर्निया , रैमालाइना पोषण की दृष्टि से चारे के लिए उपयोगी हैं । उत्तर ध्रुवीय टुण्ड्रा प्रदेश में बारहसिंघा ( reindeer ) का मुख्य भोजन क्लैडोनिया रैंजीफेरा ( बारहसिंघा मांस ) है । सूखे हुए लाइकेन घोड़ों व हंसों को खिलाये जाते हैं ।
  • औषधि के रूप में – लाइकेन पित्त , अतिसार , ज्वर , स्नायु विकास व चर्म रोगों में औषधि के रूप में प्रयोग किये जाते हैं । पारमेलिया पर्लेटा अपच तथा सांप बिच्छू के विष के उपचार में विशेष रूप से लाभदायक होता है । क्लैडोनिया , सिट्रेरिया व पर्टुसेरिया की जातियाँ म्यादी बुखार में तथा क्लैडोनिया काली खांसी में प्रयोग की जाती है । अस्निया की अनेक जातियों का प्रयोग रक्त – स्राव ( bleeding ) रोकने में किया जाता है । अनेक आयुर्वेदिक औषधियों में लाइकेन एक मुख्य घटक है । 
  • अभिरंजक के रूप में अनेक लाइकेन रंग उत्पन्न करते हैं तथा प्राचीन काल से ही इनका प्रयोग लाल , नीला तथा बैंगनी रंग बनाने में किया जाता है । ऑरसीन ( orcein ) नामक नीला रंग आर्चिल ( orchil ) का शुद्धिकृत रूप है । इसका उपयोग ऊतकीय अध्ययनों में अभिरंजक ( stain ) के रूप में किया जाता है । दक्षिण भारत में इसे नारियल की जटा रंगने में भी प्रयोग किया जाता है । रोसेला टिंक्टोरिया ( Rosella tinctoria ) नामक लाइकेन निचोड़ से लिटमस का घोल प्राप्त होता है । इस घोल से लिटमस पेपर तैयार किया जाता है । 
  • चर्म शोधक उद्योग – सीट्रेरिया आइसलैण्डिका ( Cetraria icelandica ) तथा लोबेरिया को चरमें चर्म संस्कारक ( tanning agent ) के रूप में प्रयोग किया जाता है । इनके थैलस में लीकेनोरिक अम्ल तथा इरिथ्रन नामक पदार्थ पाये जाते हैं । इनकी अमोनिया से क्रिया कराने पर ऑरसीन तथा कार्बोनिक अम्ल प्राप्त होते हैं ।
  • किण्वन व आसवन – रूस , साइबेरिया आदि अनेक देशों में क्लेडोनिया के किण्वन व आसवन से शराब बनाई जाती है । इनके अतिरिक्त लाइकेन हानिकारक भी होते हैं जैसे गर्मियों के कुछ लाइकेन सूखकर ज्वलनशील हो जाते हैं तथा आसानी से आग पकड़ लेते हैं जिससे अनायास जंगल में आग लग जाती है । कुछ लाइकेन विषैली प्रवृत्ति की भी होती है , जिनके खाने से पशुओं की मृत्यु हो जाती है । नमी वाले क्षेत्रों में अनेक लाइकेन वहाँ के मकानों की खिड़कियाँ , दरवाजों की चौखट , सीमेन्ट की दीवार व संगमरमर के फर्श पर लग जाते हैं । इन लाइकेनों से स्रावित अम्लों से इन्हें हानि पहुँचती है ।
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